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मिषाहारी हैं उसी प्रकार निर्बंध श्रमण ( जैनमुनि) भी सर्वथा एवं सर्वदा निरामिषभोजी थे और हैं ।
* ऐसा होते हुए भी अध्यापक कोसाम्बी का यह लिखना "कि उन्हों ने (जैनों ने) मांसाहार का समर्थन इसी (बौद्धों) के ढंग से किया होगा क्योंकि पूर्वकालीन तपस्वियों के समान जंगल के फूल-फलों पर निर्वाह न करके लोगों की दी हुई भिक्षा पर निर्भर रहते थे और उस समय निर्मात मत्स्य भिक्षा मिलना असंभव था । ब्राह्मण लोग यज्ञ में हजारों प्राणियों का वध करके उनका मांस आस-पास के लोगों में बांट देते थे । गांव के लोग देवताओं को प्राणियों की बलि चढ़ा कर उनका मांस खाते थे । इस के अतिरिक्त कसाई लोग ठीक चौराहे पर गाय को मार कर उसका मांस बेचते रहते थे। ऐसी स्थिति में पक्वान्न की भिक्षा पर निर्भर रहने वाले श्रमणों को मांस रहित भिक्षा मिलना कैसे संभव हो सकता था ।"
उन की यह धारणा सत्यता से कोसों दूर है । क्योंकि श्रमण भगवान महावीर निग्रंथ परम्परा के चौबीसवें तीर्थंकर थे उन से पहले तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ तथा बाईसवें तीर्थकर भगवान् अरिष्ट नेमि (नेमिनाथ) इत्यादि तेईस तीर्थंकर हो चुके थे जिन्होंने सर्वत्र अहिंसा का प्रचार कर जैन आचार-विचारों के पालन करने वाले समाज की स्थापना की थी, जो चतुविध संघ के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं का समावेश होता है। ये जैन श्रावकश्राविका श्रमण भगवान् महावीर के समय में इनके दीक्षा लेने तथा केवलज्ञान प्राप्त कर धर्म प्रचार प्रारम्भ करने से पहले से विद्यमान थे सराक आदि जातिवत् कट्टर निरामिषभोजी थे । इन के अतिरिक्त अन्य निरामिषभोजी संन्यासी श्रमणों के उपासक गृहस्थ भी निरामिषाहारी अवश्य विद्यमान होंगे। भगवान महावीर के मातापिता, तथा मामा महाराजा चेटक का परिवार तथा अन्य सगे सम्बन्धी भी नि श्रमणों के उपासक थे, अर्थात् जैन धर्मानुयायी थे ।