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________________ ( १६८ ) पर के दो पधिक थे। महात्मा बुद्ध इस पथ से भटक गए और भगवान् महाबीर स पप को पार कर सफल हुए। भगवान महावीर अपनी मात्मा को शुद्ध पवित्र करके कर्ममल से सर्वथा रहित होकर मोक्ष प्राप्त कर सदा के लिए अमर हो गयं तथा महात्मा बुद्ध अपनी चित्त शक्ति को सर्वथा बुझा कर सदा के लिये विलुप्त हो गये। इन दोनों के अपनेअपने आचार विचारों के अनुकल ही निग्रंथ (जैन) परम्परा कट्टर निरामिषाहारी है और बौद्ध-परम्परा मास-मछली आदि सर्वभक्षी है। (१५) निग्रंथ परम्परा सदा से प्राण्यंग मांस, म ली, अण्डे, मदिरा आदि अभक्ष्यभक्षण का विरोध करती आई है, यही कारण है कि जैन धर्म अन्य मासाहारी परम्पराओं के समान मासाहारी देशों में न फैल सका। भारतवर्ष में ही इसका प्रादुर्भाव हो कर भारत मे सीमित रहा। (१६) अतः (क) भाषाशास्त्र के इतिहास के अभ्यासी से यह बात कदापि छिपी नहीं रह सकती कि आचाराग आदि प्राचीन जैन आगमों के रचनाकाल के समय मांम-आमिष आदि शब्दों का अर्थ बनस्पतिपरक तथा पक्वान्नों अदि उत्तम खाद्य पदार्थों का किया जाता था। इसलिये इन आगमों में आये हुए मांसादि शब्दों का अर्थ प्राण्यंग तृतीय धातु मांस का समझना सर्वथा अनुचित है । (ख) जैन आचार-विचारों के अनुसार भी इन शब्दों का प्राण्यंग मांसपरक अर्थ सर्वथा प्रतिकूल है। (ग) जैन परम्परा के आचार संबंधी इतिहास से भी यही बात सिद्ध होती है कि भगवान महावीर स्वामी से पहले के जैन श्रावक जो कि इनके पूर्वकालवर्ती भगवान पार्श्वनाथ आदि के अनुयायी थे वे भी मांसाहारी नही थे। उन पाश्र्वापत्य श्रावकों का अवशेष रूप “सराक" जाति का आज भी बगाल जैसे मांसाहारी देश में सद भाव और उन का कट्टर निरामिषाहारी होना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। तथा मगवान महावीर के बाद निर्मित होने वाली ओसवाल, पोरवाल, अग्रवाल, खंडेलवाल श्रीमाल आदि जैन जातियों का कट्टर निरामिषभोजी होना भी हमारी इस धारणा को पुष्ट करता है । जिस प्रकार जैन श्रावक निरा
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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