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________________ ( १६० ) अर्थ करने के लिए बाध्य होना पड़ा तथा बौद्ध ग्रंथों में बौद्ध चिक्षुषों को प्रायंग मांसादि अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण के लिये निषेष करना पड़ा । इससे यह स्पष्ट है कि भूतकाल से लेकर आज तक जैनों में मांसाहार का कोई प्रचार अथवा प्रभाव को अवकाश नहीं रहा । ये सब बातें भगवान महावीर तथा निग्रंथ श्रमणों के कट्टर निरामिषाहारी होने का स्पष्ट प्रमाण है । (१२) यही कारण है कि मांसाहारी प्रदेशों तथा मांसाहारी देशों में रहने वाले जैन धर्मावलम्बी गृहस्थ भी सदा की भांति आज तक कट्टर निरामिषाहारी हैं । मात्र इतना ही नहीं जैन धर्म को लंबे अर्से से भूल चुकने वाली 'सराक' आदि जातियों का आज भी कट्टर निरामिषाहारी होना उन पर जैनधर्म के आचार तथा विचार की गहरी छाप का ज्वलंत उदाहरण है । (१३) भारतवर्ष में जनधर्म को मानने वाली ओसवाल, खंडेलवाल, पोरवाल, श्रीमाल, पल्लीवाल आदि प्रमुख जैन जातियों का निर्माण राजपूतादि मासाशी जातियों में से हुआ। जब से इन महानुभावों ने जैनधर्म को स्वीकार किया और ये निर्ग्रथ (जैन) श्रमणोपासक (श्रावक) बने तब से आज पर्यन्त कट्टर निरामिषाहारी हैं। यदि जैन आचार-विचार में मांसाहार की थोड़ी सी भी छूट होती, फिर वह चाहे उत्सर्ग से होती अथवा अपवाद से, तो ये उपर्युक्त श्रमणोपासक जैन जातिया कदापि आज कटटर निरामिषभोजी न होतीं । इस के विपरीत बौद्धों के समान ये भी सब सामिषाहारी होते। हम देख चुके हैं कि बुद्धधर्म को स्वीकार करने वाले निरामिष भोजी तापस भी मांसाहारी बन गए तथा जनधर्स को स्वीकार करने वाले मांसाहारी लोग भी कटटर निरामिषाहारी बन गये । इस से भी स्पष्ट सिद्ध है कि निब-परम्परा में मांसाहार का कभी भी प्रचलन नहीं था और न है । (१४) जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी तथा शाक्य मुदि तमागत गौतम बुद्ध समकालीन थे और आत्मसाधन के एक ही निप
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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