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(१०) बन जावमा जनवरप्राचीन साहित्य को देखने से यह भी पता लगता है कि सदा से जैन सम्प्रदायों के अनेक समर्थ विद्वानों ने अपने पहले सम्प्रदाय का त्याग कर जैनधर्म को स्वीकार किया। जिनमें निग्गंठ नामपुस (श्रमण भगवान् महावीर) के मुख्यशिष्य-गणधर इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण पंडितों ने भी जो चौदह विद्याओं के ज्ञाता थे अपने हजारों शिष्यों के साथ निर्ग्रन्थ श्रमण के पांच महाव्रतों को स्वीकार कर जन मुनि की दीक्षा ग्रहण की । वे सब जैनधर्म स्वोकार करने से पहले यजों में स्वयं पशुबलि करते थे , दूसरों से करवाते थे, तथा इस प्रथा का सर्वत्र प्रचार भी करते थे, एवं यज्ञों द्वारा तैयार किये हुए प्राण्यंग मांस को खाना अपना परमधर्म समझते थे। शय्यभव, हरिभद्र आदि अनेक समर्थ विद्वानों ने भी ऐसा ही किया। जैनधर्म को स्वीकार करने के बाद ये सब महान् तपस्वी परमसयमी तथा नवकोटिक अहिंसा के प्रतिपालक ब' और समर्थ गीतार्थ जैनाचार्यों के रूप में प्रख्यात हुए। यदि जैनधर्म के आचार विचारों मे किंचिन्मात्र भी सामिषाहार की आज्ञा अथवा प्रचार होता तो वे स्वय परम अहिंसक कदापि न बन पाते । मात्र इतना ही नहीं परन्तु वह जैनों पर यह आक्षेप भी अवश्य करते कि आप जैन लोग स्वयं तो सामिषाहार करते हैं फिर भी अन्य सामिष भोजी सम्प्रदायों की बालोचना क्यों करते है ? किन्तु परम गौरव का विषय है कि जनों पर ऐसा एक भी आक्षेप जैन अथवा जनेतर साहित्य में दृष्टिगोचर नही होता। इस से यह स्पष्ट होता है कि निम्रन्थ (जैन) धर्म मे सामिषाहार को किचिन्मात्र भी अवकाश नही है।
(११) जहाँ-जहां भी जैनधर्म का अधिक प्रभाव रहा, वहाँ के अन्य धर्मावलम्बी श्री प्राण्यंग मासादि अभक्ष्य पदार्थों का इस्तेमाल (उपयोग) करने से दूर रहते आ रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं परन्तु माज से हबार बारह सौ वर्ष पहले जब बौद्ध लोम मुजरात प्रदेश में भाये तब जैनधर्म के आचार तथा विचार के प्रभाव से प्रभावित हो कर उन्हें भी मत्स्य-मांसादि के प्राण्यंग मांसपरक अों को बनस्पतिपरक