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के समकालीन थे तथा ये सभी प्रथम नियंन्यपरम्परा में दीक्षित हुए और वर्षों तक निर्ग्रन्थ आचारों का पालन भी करते रहे । बाद में इस परम्परा का त्याग कर जब उन्होंने अपने-अपन नधीन पंथों की स्थापनाएँ की तब भी उन्होंने जैनधर्म के प्रतिस्पर्धी के रूप में जैन सिद्धान्तों तथा आचारों का घोर विरोध किया। यद्यपि इन तीनों में से बुद्धधर्म के साहित्य के अतिरिक्त किमी पंथ का साहित्य उपलब्ध नहीं है तथापि बौद्ध साहित्य को देखने से हम स्पष्ट जान सकते हैं कि तथागत गौतम बुद्ध ने जब अपने पंथ की स्थापना की उस समय अपने पंथ के प्रचार तथा विस्तार के लिये जैन धर्म के अनेकान्तवाद, तपश्चर्या आदि की कड़ी आलोचना की। शाक्य मुनि गौतम बुद्ध तथा उनके भिक्षु प्राण्यंग मांस, मछली आदि मृतमांस का खुल्लम-खुल्ला निःसंकोच भक्षण करते थे और वे लोग मृतमांसभक्षण में दोष भी नहीं मानते थे। उनके इन अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण करने पर उनके समकालीन निरामिषमोजी मतावलम्बियों ने उन की ऐसी आचार प्रणाली की कड़ी आलोचना की एवं आक्षेप भी किये । उन आलोचकों में जन भी एक थे। बुद्ध ने अपने इस शिथिलाचार को ढकने के लिये तथा अपने धर्मप्रचार के लिये अपने आलोचकों के विरुद्ध अनेक प्रकार से प्रचार किया । इतिहास से यह बात स्पष्ट है कि जैन तथा बौद्ध उस ममय परस्पर प्रतिस्पर्टी के रूप में थे। ऐसा होते हुए भी बौद्ध साहित्य में जैनों पर मांसाहार करने का आक्षेप न पाया जाना हमारे इस मत की पुष्टि करता है कि निर्ग्रन्थ (जैन) परम्परा में कदापि प्राण्यंग मांस मछली आदि अभक्ष्य पदार्थों के खाने का प्रचलन नहीं था।
(९) मात्र इतना ही नही परन्तु शाक्यमुनि गौतम बुद्ध ने अपनी निर्ग्रन्थ अवस्था की तपश्चर्या का वर्णन करते हुए मत्स्य, मांस, मदिरा आदि सेवन करने का निषेध किया है। ऐसा होने से निर्ग्रन्थ श्रमणों का मांसाहार न करने का स्पष्ट निर्देश पाया जाना भी इसी बात की पुष्टि करता है कि निम्रन्थ (जैन) परम्पराओं में ऐसे अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण का कदापि प्रचलन नहीं था।