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को स्वयं निष्पन्न करना होगा । यदि ऐसा ही आवश्यक है तो श्री निर्ग्रन्थश्रमण संघ को संयम पालन के निमित्त अपने उपकरणों में लेखनी, स्याही, areपत्र इत्यादि की वृद्धि करनी पड़ेगी । अन्त में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का विचार करके जिससे अहित का परिहार तथा हित का लाभ हो ऐसे उत्सर्ग- अपवाद रूप स्याद्वाद की दृष्टि को लक्ष्य में रखते हुए उस समय एकत्रित हुए निर्ग्रन्यभ्रमणसंघ ने सर्वसम्मति से इस कंठस्थ ज्ञान को लिपिबद्ध करके पुस्तकारूढ़ करने का निर्णय किया । इस निर्णय के अनुसार श्री देवगिणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में जो-जो आगम पाठ जिस-जिस निर्ग्रन्थ श्रमण को याद थे उन सब को बिना किसी फेरफार के ताड़पत्रों पर लिख कर लिपिबद्ध किया । भगवान् महावीर के समय से लेकर इस समय तक जितने आगमों प्रकीर्णकों की रचना हुई थी, फिर वे चाहे अंगप्रविष्ट थे या अंगबाह्य थे उन का जितना जितना भाग याद था सब संगृहित कर लिया गया । अर्थात् ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ईसा की पांचवीं शताब्दी तक के जैन साहित्य को लिपिबद्ध करके लिख लिया गया । तत्पश्चात् इस आगम-साहित्य पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीकाएं आदि लिखे गये । तथा अनेकविध नवीन साहित्य की रचना भी होती आ रही है । इससे यह स्पष्ट है कि जैनागमों में जो कि इस समय विद्यमान है उन की मूल भाषा जैसी कि भगवान् महावीर स्वामी ने अपने श्रीमुख से दिव्य ध्वनि द्वारा अपनी देशना ( उपदेश ) मे कही थी वही भाषा बिना किसी फेर फार के सुरक्षित है ।
(४) इन जैनागमों पर टीकाएं आदि लिखने वाले टीकाकार समर्थ विद्वान थे, जैन सिद्धान्तों तथा आचारों के जानकार एवं प्रतिपालक थे । उनके रोम-रोम में जैनधर्म का अनुराग भी था। ऐसा होते हुए भी वे छद्मस्थ थे और इन आगमों पर काओं की रचनासमय तक तो इन विवादास्पद शब्दों के प्राचीन अर्थ प्रायः भूले जा चुके थे तथा इनके नवीन अथ प्राण्यंगों के रूप में प्रचार पा चुके थे । इसलिये शब्द कोशकारों ने भी अपने नवीन शब्द कोशों में इन शब्दों के अर्थ को प्राप्यंग रूप में लिखा । यह बात