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शास्त्रियों से छिपी नहीं है। ऐसी हालत में इन विवादास्पद सूत्रपाठों के अर्थ में मतभेद होना स्वाभाविक था । जिन्हें तो प्राचीन गुरुपरम्परा द्वारा किये जाने वाला अर्थ याद था वे तो इन शब्दों का अर्थ arerforce aer पक्वान्नादि खाद्य पदार्थ करते थे और जो उन प्राचीन अर्थों को भूल चुके होंगे और उस समय के प्रचलित अर्थ करते होंगे वे इन शब्दों का अर्थ प्राण्यंगों का समझने लगे हों तो इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं है । यदि कोई कोई आचार्य अपनी उद्यस्यावस्था के कारण प्राचीन समय से किये जाने वाले अर्थो के बदले मांसपरक अर्थ समझने लगे हों तो भी जब वे जैन आचार विचारों के साथ तुलना करते तो उन्हें इस बात का विस्मय हुए बिना नहीं रहता होगा कि नवकोटिक अहिंसा के प्रतिपालक तथा उपदेशक निग्गंठ नायपुत ( श्रमण भगवान् महावीर ) तथा निर्ग्रन्थ श्रमणों के आचार सम्बन्धी सूत्रपाठों में ऐसे मासनिष्पन्न पदार्थों के व्यवहार की आज्ञा क्यों ?
जैनाचार्यों ने शब्द से भी अर्थ को अधिक महत्त्व दिया है । इसके मूल की खोज की जाय तो पता लगता है कि जैन मान्यता के अनुसार तीर्थकर तो केवल अर्थ का उपदेश देते हैं । " शब्द गणधर के होते हैं ' । अर्थात् मूलभूत अर्थ है न कि शब्द । वैदिकों में तो मूलभूत शब्द है उस के बाद उसके अर्थ की मीमांसा होती है। इसलिये जैनधर्म के अनुसार मूलभूत अर्थ है, शब्द तो उसके बाद आता है। यही कारण है कि सूत्रों के शब्दों का उतना महत्त्व नहीं, जितना उनके अर्थो का है। इसी लिये जैनाचार्यो ने शब्द को उतना महत्व नहीं दिया जितना कि अर्थी को दिया और फलस्वरूप शब्दों को छोड़ कर वे तात्पर्यार्थ की ओर आगे बढ़ने में समर्थ हुए | शब्द का केवल क प्रसिद्ध अर्थ करना "भाषा" है, एक से अधिक अर्थ करना "विभाषा" ; तथा यावत् अर्थ का देना
"वातिक" है ।
आचार्य अपनी ओर से सूत्रों की व्याख्या करते हैं, किन्तु उस व्याख्या का तीर्थंकर देवों की किसी भी आज्ञा से विरोध नहीं होना चाहिये ।