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समूह अंगवाल के नाम से कहे जाते हैं । भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणवर थे, उनमें से नव तो भगवान् महावीर की ौजूदगी में ही निर्माण (मोक्ष) को पा गये थे । जिस रात्रि को भगवान् महावीर ने निर्वाण पाया था उसी रात्रि को उनके प्रथम गणधर श्री इन् भूति गौतम को केवलज्ञान हो जाने से एक मात्र पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी उस समय भगवान महावीर के चतुर्विध संघ ( साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका ) रूप तीर्थ के नेता (संघ नायक आचार्य) संरक्षक बने । जैन श्रमण बाह्याभ्यंतर परिग्रह के सर्वथा त्यागी होने से उन्हें निर्ग्रन्थ (निग्गठ अथवा निग्गंथ) के नाम से संबोधित किया जाता था। वे निर्ग्रथचर्या के पालन के लिये अत्यावश्यक कतिपय उपकरणों के सिवाय अपने पास अन्य कोई भी पदार्थ नहीं रखते थे तथा उस समय केवली, गणवर एवं द्वादशांगी (ग्यारह अंग तथा चौदह पूर्वी ) का ज्ञाता गीतार्थ जैन श्रमण संघ विद्यमान होने से भगवान् महावीर की वाणी को लिखने की आवश्यकता नहीं समझी गयी। भगवान् महावीर के बाद १७० वर्षो तक श्री भद्रबाहु स्वामी तक द्वादशांगी को निर्ग्रन्थ श्रमणों ने बराबर कंठस्थ याद रखा, इसलिये उस ज्ञान में कमी नहीं आयी । श्री स्थूलभ जो कि आचार्य भद्रबाहु स्वामी के समकालीन तथा उनके बाद उनके पट्टधर आचार्य नियुक्त हुए वे ग्यारह अंगों तथा दस पूर्वो के अर्थ सहित ज्ञाता एवं चार पूर्वो को मूल सूत्र पाठ मे जानते थे । उस समय अनेक अन्य निर्ग्रन्थ भी इतने ज्ञान के ज्ञाता थे । यह समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी ठहता है । आर्य सुहस्ती, आर्य महागिरि, महाराजा सम्प्रति के समय हुए ( ई० पू० २२० ) । फिर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी ( ई० पू० १७४ ) में जैन सम्राट कलिगाधिपति खारवेल ने अपनी महा विजय के बाद अपनी राजधानी में एक धर्म सम्मेलन किया । उस समय निर्ग्रन्थ श्रमण बहुत संख्या में पधारे। "वहाँ उन सब ने जैनागमों की वाचना की और उन्हें व्यवस्थित किया ।" ऐसा हाथी गुफ़ा के शिलालेख से ज्ञात होता है । इसी प्रकार बीच-बीच में एक-दो शताब्दियों के बाद निर्ग्रन्थ श्रमण किसी न किसी स्थान पर एकत्रित