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पिष्टान्न आदि से बनाये गये मिष्टान्न भोजन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मांस शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य यास्क कहते हैं :-- ___ "मांसं माननं वा मानसं वा मनोऽस्मिन् सोवति वा।"
अपं-मांस कहो, मानन कहो, मानस कहो ये सब एक ही अर्थ के प्रतिपादक पर्याय हैं और ये उस भोजन के नाम हैं; जो आगन्तुक माननीय महमान के लिये तैयार किया जाता था और वह समझता था कि मेरा बड़ा मान किया गया है। __ "मन ज्ञाने" इस धातु से मांस शब्द निष्पन्न हुआ है और इसका अर्थ होता है, बड़े आदमी के सन्मान का साधन ।
पुरातत्त्वज्ञाता विद्वानों ने आचार्य यास्क का समय ईसा पूर्व नवम शताब्दी निश्चित किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि आज से तोन हजार वर्ष पूर्व के वैदिक साहित्य मे मांस शब्द वनस्पतिनिष्पन्न खाद्य के अर्थ में प्रयुक्त होता था। __इस के बाद धीरे-धीरे मधुपर्क और पिष्टकर्म में प्राण्यंग मांस का प्रयोग होने लगा। "बोधायन गृह्यसूत्र" में जो कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी की कृति मानी जाती है--यह आग्रह किया गया है कि मधुपर्क में प्राण्यंग मांस अवश्य होना चाहिये यदि पशु मांस न मिले तो पिष्टान का मांस तैयार कर काम में लिया जाए।
"आरण्यन वा मांसेन ॥५२॥ न त्वेषामांसोऽध्यः स्यात् ॥५३॥ अशक्ती पिष्टानं संसिध्यत् ॥५४॥" ____अर्थ--(गौ के उत्सर्जन कर देने पर अन्य ग्राम्य पशुओं के अभाव में) आरण्य पशु के मांस से अर्ध्य किया जाय, क्योंकि मांस बिना का अर्ध्य होता ही नहीं। यदि आरण्य मांस की प्राप्ति न कर सके तो पिष्टान्न से उसे (मास को) तैयार करे।
उपनिषदों में भी मांस तथा आमिष शब्द प्रयुक्त हुए दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु वहाँ सभी जगह में वनस्पति खाद्य पदार्थ का अर्थ प्रतिपादन किया गया है। उपनिषद् वाक्य कोश में लिखा है