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( १५३ ) "मांसमुपीय ।" "यो मध्यमस्तन्मासम् ।" अर्थ-मास के गुण गाओ। जो भीतर का सार माग है।
उक्त उद्धरणों से भली-भांति प्रमाणित हो जाता है कि वैदिक प्राचीन साहित्य में अति पूर्व काल में मांस-आमिष आदि शब्द वनस्पति खाद्यों के अर्थ में प्रयुक्त होते थे और भोजन में पश्वत की प्रवृत्ति बढ़ने के समय में इन शब्दों का पातु प्रत्यय से व्यक्त होने वाला अर्थ तिरोहित हो गया, और प्राण्यंग मांस ही मांस शब्द का वाच्यार्थ बन गया ।
पिछले समय में जब कि मांस तथा आमिष शब्द केवल प्राण्यंग मांस बन चुके थे, उस समय भी 'आभिष' शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता भा। ऐसा ' म सिन्धु' ग्रंथ में दिये गये निम्नलिखित प्राचीन श्लोकों से ज्ञात होता है।
"प्राण्यंगचूर्ण चर्मस्थोदकं जम्बीर बीजपूरं यजशेषभिन्न विष्ण्वनिवेदितान्नं दुग्धान्नं मसूरं मांसं चेत्यष्टविधमामिषं वर्जयेत् ।"
अन्यत्र तु “गोछागीमहिष्यन्यदुग्धं पवितान्नं द्विजेभ्यः क्रीता रसा भूमिलवर्ण ताम्रपात्रस्पगन्यं पल्वलजलं स्वार्थपक्वमन्नमित्यामिषमणः उक्तः॥"
अर्थ-प्राणधारी के किसी भी अंग का वर्ण. चमडे में भरा हआ 'पानी, जम्बीर फल, बीजोरा, यज्ञशे के अतिरिक्त विष्णु को निवेदित नहीं किया हुआ अन्न, जला हुआ अन्न, मसूर धान्य और मास इन आठ पदार्थों का समुदाय आमिषगण कहलाता है। मतान्तर से आमिष गणगाय, बकरी, भैंस के दूध को छोड़कर शेष जानवरों का दूध, बासी अन्न, साह्मण से खरीद की हुई जमीन, जमीन पर के खार से तैयार किया आ नमक, ताम्रपात्र में रखे हुए पांच गव्य, छोटे खड्डे में रहा हुधा जल, आत्मार्थ पकाया हुआ भोजन, यह दूसरे प्रकार का आमिषगण है।
उपर्युक्त दोनों आमिषगणों में आमिष शब्द अभक्ष्य अथवा अपेय पदार्थों में प्रयुक्त हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि 'धर्मसिंधु' गत उपर्युक्त दो सूत्रों के निर्माण समय से पहले ही वैदिक साहित्य में आमिष