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(१) सामान्य रूप से सबसे प्राचीन ऋग्वेद संहिता में आमिष शब्द का प्रयोग ही नहीं मिलता, इतना ही नहीं बल्कि प्राचीन वैदिक निघण्टु में भी मांस अथवा इसके किसी पर्याय का नाम नहीं मिलता। इसका कारण यह तो नहीं हो सकता कि उस समय मांस पदार्थ ही नहीं था। मनुष्य पशुओं के शरीर में रहने वाली धातुओं में से ततीय मांस धातु उस समय भी विद्यमान था । प्राचीन वेद तथा उसके प्राचीन वैदिक कोश में उसका उल्लेख न होने का कारण यही है कि तत्कालीन ऋषि लोग प्राण्यंग रूप माम का किसी कार्य में उपयोग नहीं करते थे। अतः उनकी बतायी हुई वैदिक ऋचाओं में मांस शब्द नहीं था और न ही उनके निघण्टुओं मे लिखने की आवश्यकता थी। यद्यपि "ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में मास शब्द का प्रयोग हुआ है परन्तु वे सूक्त ऋग्वेद में पीछे से जोड़ दिये गये हैं, ऐसी अनेक विद्वानों को मान्यता है। "शुक्ल यजुर्वेद के अश्वमेध प्रकरण में अनेक पशुओं की हिंसा की चर्चा है जो इस संहिता के रचयिता विद्वान याज्ञवल्क्य के वाजसनेयी होने का परिणाम है। इन्हीं की बदौलत यज्ञों में कुछ समय के लिये हिंसा खब बढ़ चली थो, परन्तु अथर्ववेद के समय यह हिंसा का प्रवाह रुक पड़ा था"। 'अथर्ववेद' में बन्ध्या गौ के वध का प्रसंग आया अवश्य है, परन्तु इस वेद के अन्य लों में मांस खाने का निषेध भी किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि भाष्यकार यास्क के समय तक पशुयज्ञ और मांसभक्षण मर्यादित हो गया था। इसी कारण से मांस शब्द की जो व्युत्पत्ति की है वह प्राण्यंग मांस को नहीं, परन्तु वनस्पत्यंग मांस को ही लामू होती है। यहाँ मांस प्राण्यंग रूप नहीं पर फल मेवों के गर्भ अथवा