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इससे मुझे विशेष रूप से सक्रिय प्रेरणा तथा उत्साह मिला और दृढ़ संकल्प बनने में सहायता मिली। मैने उनमें से कुछ उपयोगी नोट्स इस निबन्ध में स्वीकार किये हैं । अतः मैं उन सब प्रेरणादाताओ का आभारी हूँ ।
मैने इस निबन्ध को ईसवी सन् १९५७ में अम्बाला शहर पंजाब में लिखना प्रारंभ किया और पूरे दो वर्ष के सतत परिश्रम के बाद ईसवी सन् १९५९ को लिखकर तैयार हो गया। मै सन् ईसवी १९६२ को दिल्ली
आ गया ।
इस निबन्ध को तैयार करने में कई अड़चने, प्रतिबन्ध और असुविघाओ तथा साधन-सामग्री के अभाव के बीच में से गुजरना पड़ा । येन-केन प्रकारेण साधन सामग्री जुटाकर और सब अडचनों का सामना करते हुए यह निबन्ध ईसवी सन् १९५९ में तैयार होकर पूरे पांच वर्ष बाद आज सन् ईस्वी १९६४ मे श्री आत्मानन्द जैन महासभा पजाब द्वारा प्रकाशित होकर आपके कर कमलों तक पहुच पाया है। आशा तो थी यह जल्दी प्रकाशित होता लेकिन “ श्रेयास बहु विघ्नानि" लोकोक्ति यहा भी प्रबल बनी ।
अब मेरी यह हार्दिक भावना है कि इस निबन्ध का अनेक भाषाओं मे अनुवाद होकर विश्वभर में सर्वत्र प्रचार हो, जिससे जैन धर्म, जैन तीर्थकरो, जैन आगमो, जैन मुनियों तथा जैन गृहस्थों पर लगाये गये नितान्त मिथ्या आक्षेपों का निरसन होकर इसका सत्य और वास्तविक स्वरूप से विश्व का मानव समाज परिचित हो ।
अहिसा प्रेमी महानुभावो को इसके सर्वत्र प्रचार के लिए इस निबन्ध की प्रकाशक सस्था को प्रोत्साहन देते रहना चाहिये ।
इस निबन्ध में यह सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि निम्गठ नायपुत्त श्रमण भगवान् महावीर ने उत्सर्ग तथा अपवाद किसी भी सूरत मे प्राण्यंग मासाहार ग्रहण नही किया और न ही आप अपने सिद्धान्त ( आचार-विचार ) के अनुसार ऐसा अभक्ष्य पदार्थ ग्रहण कर सकते थे । उत्सर्ग मार्ग वह सिद्धान्त है जो प्रधान मार्ग है । महापुरुष के जीवन में हमेशा प्रधान मार्ग का ही आचरण रहता है । उनके लिये देहाध्यास कोई खास वस्तु नही है ।