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ग्राही, शीतल, रक्त-पित्तदोषनाशक । यदि पका हो तो अग्निवर्धक है । (४) कबूतर पक्षी का मांस :
"स्निग्धं ऊष्मं गुरु रक्तपित्तजनकं वातहरं च ।
सर्वमांसं वातविध्वंसि वृष्यं ।। अर्थ- मांस स्निग्ध, गरम, भारी तथा रक्तपित्त के विकारों को पैदा करने वाला है, वात को हरने वाला है। सब मांस वातहर और वृष्य है। - यहाँ पर "कवोय" शब्द है चार अर्थों में से तीन अर्थ वनस्पतिपरक हैं तथा एक अर्थ मांसपरक है।
भगवान महावीर स्वामी को रोग थे :(१) रक्तपित्त, (२) पित्तज्वर, (३) दाह, (४) अतिसार ।
इन रोग को शान्त करने के लिए इन चारो पदार्थों में से छोटा कुष्माण्ड (पेठा) फल ही औषधरूप लिया जा सकता था; क्योंकि इन मे से यही औषध इन रोगों को शान्त करने में समर्थ थी । परापत तथा पारीस पीपर ये दो वनस्पतिपरक औषधियां इस रोग को शांत नहीं कर सकती थीं। मांस तो इस रोग को पैदा करने वाला, बढ़ाने वाला है। अत: शेठ की भार्या रेवतो श्राविका ने भगवान महावीर स्वामी के रोग के शमनार्थ "दो छेटे पेठे के फल ही" सस्कार किये थे, इस में सन्देह को अवकाश नही।
प्राचीन चणि तथा टोकाकारों ने भी "दुवे कवोयसरीरा" का अर्थ "दो छोटे पेठे फल" ही किया है. यह हम पहले लिख आये हैं।
१." दुवे कवोयसरीरा"-ये तीन शब्द हैं । सरीरा शब्द 'कवोय' से निष्पन्न पुल्लिग वाले द्रव्य का द्योतक है। यदि यह 'सरीराणि' (नपुंसक लिङ्ग) शब्द का प्रयोग होता तो इसका अर्थ पक्षीशरीर पर लाग हो सकता था। क्योंकि "नपुसक शरीर शब्द ही" प्राणी शरीर या मुर्दे के अर्थ में आता है, किन्तु शास्त्रकार को यह भी अभीष्ट नहीं था। अतः उन्होने यहाँ "शरीराणि" का प्रयोग न करके पुल्लिग में "शरीरा" शब्द