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धान्य मास । उस में जो अयं मास है, वह भी दो प्रकार - "स्वर्णमास वीर रौप्यमास । यानी चांदी का मासा, सोने का मासा ( एक प्रकार के तोलने के बाँट) । ये भी श्रमण निर्ग्रयों को अभक्ष्य हैं। जो धान्य भाष (उड़द ) हैं, वे भी दो प्रकार के हैं- शस्त्रपरिणत ( अग्नि आदि से अचित्त हुए) और अशस्त्रपरिणत ( अग्नि आदि से अचित्त नहीं हुएसजीव ) । इत्यादि जैसे धान्य सरसों के लिये कहा वैसा धान्य माष ( उड़द) के लिये भी समझ लेना । यावत् - वह इस हेतु से अमक्ष्य भी
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है ।
यानी - अग्नि आदि से अचित्त उडद भी दो प्रकार का है - एषणीय और अनेषणीय (साधु के निमित्त आदि से न रांधा हुआ निर्दोष और साधु के निमित्त से राधा हुआ सदोष ) । इस में जो अनेषणीय है वह श्रमण निग्रंथों को अभक्ष्य है । एषणीय उड़द भी दो प्रकार के हैं: याचित ( मांगे हुए) अयाचित ( न माँगें हुए । इन में जो अयाचित रांधे हुए उडद है वे श्रमण निग्रंथों को अभक्ष्य हैं । और जो याचित रांधे हुए उड़द हैं वे भी दो प्रकार के हैं-मिले हुए ( प्राप्त), न मिले हुए (अप्राप्त) । इन मे जो नही मिले ऐसे रांधे हुए उडद श्रमण निग्रंथों को अभक्ष्य हैं । और जो रांधे हुए मागने पर प्राप्त हो गये है, ऐसे निर्दोष उडद श्रमण निग्रंथो को भक्ष्य ( खाने योग्य) है । हे सोमिल ! इस कारण से 'मास' भक्ष्य भी है, अभक्ष्य भी है ।
(प्र०) कुलस्था ते भंते! कि भक्ख्या, अभक्खया ? ( उ० ) सोमिला ! कुलत्या भक्खया वि अभक्खया वि । ( प्र०) से केणट्ठेण जाव अभक्या वि ? ( उ० ) से नृणं सोमिला ! तं बंभन्नएस येसु दुबिहा कुलत्था पन्मत्ता, तं जहा - इत्यि कुलत्थाय धन्नकुलत्या य । तत्थ णं जे ते इत्यिकुलत्था ते तिविहा पन्नता, तं जहा - कुलकन्नया इ वा कुलवहुया ति वा कुलमाज्या इ वा, ते णं समणाणं निग्गंथाणं- अभक्त्वया । तस्ब णं जे ते धन्नकुलत्या एवं जहा धन्नसरिसवा से तेणट्ठेणं जाव अभक्या वि । (भगवतो शतक १८ उद्देशा १० )