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(३) वनस्पत्यंग माँस आदि
जिस प्रकार मनुष्यादि प्राणधारियों के शरीर में (१) रस, (२) करि (३) मांस, (४) मेदस् (५) अस्थि, (६) मज्जा, और (७) वीर्य - ये सात धातु है, उसी प्रकार अति प्राचीन काल में वनस्पतियों के भी रसादि सात धातु माने जाते थे ।
१- मनुष्यादि प्राणधारियों का शरीरावरण चर्म अथवा त्वचा कहलाता है, उसी प्रकार वनस्पतियों के शरीर का आवरण भी चर्म अथवा त्वक् कहलाता है ।"
२- मनुष्यादि प्राणधारियों के आहार से तैयार हुआ सत्त्व रस कहलाता है वैसे ही वनस्पतियों में रहा हुआ जल भाग रस कहलाता है । 2
३ - प्राणधारियों के शरीर से निष्पन्न तत्त्व रुधिर कहलाता है वैसे ही वनस्पतियों में तैयार होने वाला स्राव उनका रुधिर कहलाता है । 3
४- प्राणधारियों के रुधिर से बनने वाला ठोस पदार्थ मांस कहलाता है वसे ही वनस्पतियों से मिलने वाला सार भाग (गूदा ) मांस कहलाता है
१- शमी - पलाश- खदिर- बिल्वा श्वस्थ विकडून न्यग्रोध- पनसा-खशिरीषोदुम्बराणां सर्वयाज्ञिकवृक्षाणां चर्म कषायकलशेनाऽभिविव्धति XXX (बोधायन गृहसूत्र पु० २५५ )
अर्थात् शमी, पलाश, खदिर, बिल्व, अश्वत्थ, विककृत, न्यग्रोध, पनस, आम्र, शिरीष, उदुम्बर इन वृक्षों तथा अन्य सर्व याज्ञिक वृक्षों के चर्म (छिलके) के चूर्ण से मिले जल भरे कलश से (विष्णुमूर्ति का ) अभिषेक करें।
२ - तस्मात्तदा तुणात्प्रेति रसो वृक्षादि वाहतात् (बृहदारण्यकोपनि ० ) अर्थात्-- जिस प्रकार वृक्ष पर प्रहार करने से रस निकलता है वैसे ही वृक्ष पुरुष के परोह से रस निकलता है ।
३-स्वच एवास्य रुधिरं प्रस्यन्दि त्वच उत्पदः (बृहदारण्यकोपनि ० ) अर्थात् - इसका रुधिर स्राव है जो त्वचा (छिलके ) के भीतर से झरता है ।
४- मांसपथ नारिकेलम् (चरक संहिता)
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