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वर्ष और इस से पहिले मांस, पिशित, माम और ऋविष ये चार शब्द मांस के अर्थ में प्रयुक्त होते थे।
(२) मांस के नामों में वृद्धि
ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक मांस के चार नाम ही प्रचलित थे । इन में से आम और ऋविष् वैदिक नाम होने के कारण लोकव्यवहार में से लुप्त हो गये, परन्तु मास के कुछ नये नाम भी प्रचलित हो गये, जिनका ऋमिक इतिहास इस प्रकार है । “अमर कोश" जो कि विद्यमान सब शब्द कोगों से प्राचीन है-पांचवीं शताब्दी की कृति है-उसमें मांस के छः नाम मिलते हैं। इसके छ तथा सात सौ वर्ष बाद अथवा ग्यारहवी, बारहवी, शताब्दी मे होने वाले वैजयन्ती तथा अभिधानचिन्तामणि कोशों में क्रमशः बारह तथा तेरह नाम सग्रह हुए है.--
"मांसपलल जांगले । रक्तात् तेजोभवेत्रव्य काश्यप सरसामिषे ॥ ६२२ । मेदस्कृत पिशितं कोनं पलम् ।।
(अभिषानचिन्तामणि) उक्त मामादि नामों के अर्थों का विचार करने में स्पष्ट होता है कि मांस, जिसका अर्थ प्राणि-अग होता है. यह मनुष्य के खाने का पदार्थ नहीं था।
प्रत्येक नाम सदा के लिये एक ही अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता। कई ऐसे नाम है जो प्रारंभ में एकार्थक होते हुए भी हजारों वर्षों के बाद अनकार्थक बन चुके हैं, जैसे--अक्ष, मधु, हरि आदि नाम। कई अनेकार्थक नाम हजारों वर्षों के बाद एकार्थक बन जाते हैं, जैसे मृग,फल मांस आदि शब्दों के अर्थ गहित हो जाने के कारण उन अर्थों का त्याग हो जाता है । कोशकार अपने समय में जो शब्द जिम अर्थ का वाचक होता है. सो उसी अर्थ का प्रतिपादक बताते हैं। लुप्तार्थों तथा भविष्यत् अर्थो की कल्पना में वे कभी नहीं पडते । ज्यों ज्यों जिस पदार्थ के नाम बढ़ते जाते हैं, त्यों त्यों आगे के कोशकार अपने कोश में संग्रह करते जाते हैं।