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अधोमागंगामी--जिस रोम में गुदा, लिंग आदि अधोमार्ग से रक्त गिरता है; वह रोग वात के सम्बन्ध से होता है।
ऊपर और नीचे दोनों मार्गों से रक्त गिरने वाला रक्त-पित्त द्विमार्गगामी कहलाता है और वह वात और कफ इन दोनों कारणों से होता है।
इस प्रकार यह रोग तीन प्रकार का होता है। रोग होने के कारण:--
अग्नि के अधिक ताप मे, धूप में बहुत डोलने से, अति परिश्रम करने से, बहुत मार्ग चलने से इत्यादि अनेक कारणों से रुधिर के बिमड जाने से, रुधिर ऊपर के अथवा नीचे के मार्ग से अथवा दोनों मार्गों से होकर निकलता है उसे रक्तपित्त रोग कहते हैं। .
इस रोग में अपथ्य-खट्टे पदार्थ, खारे पदार्थ, दही, ताम्बूल, कडचे पदार्थ इत्यादि ।
आर्यभिषक) २-~-पित्त ज्वर के लक्षण:--सारे शरीर मे दाह, स्वर का वेग तीव्र, तुषा, मूर्छा, अल्प निद्रा, मुंह कड़वा, अतिसार इत्यादि।
(आर्य भिषक् पृ० ५१९) ३-वाह रोग के लक्षण :--शरीर शुष्क तथा तप्त होना इत्यादि। यह रोग अग्नि द्वारा जलने अथवा झुलसने से, सूर्य के ताप में फिरने से, गरम पदार्थों के सेवन से अथवा पित्त के प्रकोप वगैरह से अन्त हि (शरीर के अन्दर की दाह) तथा बहिर्दाह (बाहर शरीर जलता है) अथवा दोनों दाह उत्पन्न होते है। इस के सात भेद हैं-(१) रक्त पित्त दाह, (२) रक्त दाह, (३) पित्त दाह, (४) तृष्णा दाह, (५) रक्तपूर्णोदरदाह, (६) धातु दाह, (७) मर्मघात दाह।
इस रोग में अपथ्य--रास्ते चलना, खारे तथा पित्त कर पदार्थ खाना, परमी लेना, मरम पदार्थ खाना इत्यादि। (आर्यभिषक् पृ०५५०)।
४-रक्तातिसार-लहू के साथ टट्टी आना; इसे मरोड़ भी कहते हैं ।
अपथ्य--मल मूत्र अवरोध, कोशीफल, स्निग्ध भोजन, तथा भारी पदार्थ इत्यादि।
(आर्यभिषक् पृ०४९१-९२)