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( १० ॥ श्रमण भगवान महावीर का रोग तथा उसके लिये
उपयुक्त प्रौषध। निग्गंठ नायपुत्त (श्रमण भगवान महावीर) को चार प्रकार के रोग थे--(१) रक्त पित्त, (२) पित्त ज्वर, (३) दाह, तथा (४) रक्तातिसार रोग थे। और ये रोग उन को केवली अवस्था में हुए थे। जो कि उन के बिरोधी गोशालक के द्वारा छोडी हुई तेजोलेश्या के स्पर्श से हो गया था। तेजोलेश्या मे इतनी प्रबल दाहक शक्ति होती है कि उसके लपेट मे जो आ जाता है वह भस्म हो जाता है। इसी लिये भगवान् महावीर को इसके स्पर्श मात्र के प्रभाव से ही ऐसा दाहक रोग हो गया था। इस रोग के उपचार के लिये कौन-सी औषध उपयुक्त हो सकती है इस का निर्णय करने से पहले हम पाठको की जानकारी के लिये इस रोग के कारण, लक्षण तथा वृद्धि के कारण बतला देना चाहते है, ताकि हम जान सके कि निदान मे चिकित्सा-शास्त्र की दृष्टि से प्राण्यग मास भक्षण करना लाभकारी हो सकता है अथवा वनस्पति से तैयार की हुई औषध ?
१-रक्त-पित्त रोग का लक्षण, भेद तथा कारणः--
रक्तपित्त त्रिषा प्रोक्तमूवंग कफसंगतम् । अधोग मारताज्जय तद्व येन द्विमार्गगम ॥ १९॥
(सारगधर सहिता प्र० ख० अ०७) अर्थात-रक्तपित्त तीन प्रकार का होता है-(१) ऊर्ध्वगामी, (२) अधोगामी, (३) उभयगामी (ऊपर व नीचे दोनो मार्गों से रक्त जाय)
ऊर्ध्वगामी--जिस रोग मे मख, नाक आदि ऊर्ध्व मार्ग से रक्त गिरता है। वह कफ के सम्बन्ध से होता है।