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________________ ( १०३ ) नहीं था वे निर्ग्रन्थों से अलग हो कर ही मत्स्य-मांस जैसी अभक्ष्य वस्तुओं का भक्षण कर सकते थे । इससे यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्यचर्या में मांसाहार की किचिन्मात्र भी 'जाइश नहीं है । बौद्ध, कापालिक, वेदधर्मनुयायी तथा अन्य अनेक सम्प्रदाय उस समय मांस-मत्स्यादि भक्षण करने वाले थे, ऐसी अवस्था में यदि कोई ऐसा तर्क करता हो कि जब अन्य धर्मावलम्बी मांस-मत्स्यादि का आहार करते थे तो जैन इस से कैसे बच सकते थे ? यह दलील भी इन की युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि उस समय अनेक अन्यमतावलम्बी तपस्वी भी जैनों के समान ही मांसाहार नहीं करते थे और इस का पूर्ण रूप से निषेध करते थे, ऐसा हम बौद्ध ग्रंथ सुत्तनिपात के चौदहवें आमगंध सुत्त में एक तपस्वी का काश्यप बुद्ध के साथ हुए संवाद से जान सकते हैं। वैसे हो, जैन भी इन अभक्ष्यभक्षणों से सदा अलिप्त रहे हैं। तथा मांस-मत्स्य भक्षण के सर्वव्यापी प्रचार के इस युग में, ऐसे गंदे वातावरण में, भी जैन समाज इस से सा बची हुई है यह हमारे सामने प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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