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बी कि महंत प्रवचन में मांसाहार को श्रमण मगवान् महावीर ने नरक का कारण बतलाया है। मांस खाने वाले, लाने वाले तथा बनाने वाले सब को पातक (कसाई) की कोटि में गिना है । तथा यह भी बात निःसन्देह है कि जो रोग निग्गंठ नायपुत्त (श्रमण भगवान महावीर) को इस समय था, जिस रोग के शमन के लिये यह औषध दान दी गयी थी, उस रोग में मांसाहार अत्यन्त हानिकारक है।' ऐसे विचारों से सम्पन्न तथा श्राविका. के श्रेष्ठ चारित्र (व्रतों) से अलंकृत रेवती श्राविका मांसाहार बनाए, वह स्वयं खाये अथवा परिवार को बना कर खिलाये. तीर्थकर के लिये दे और मुनि को दान में दे, यह कदापि संभव नहीं हो सकता । तथा मासाहार के दान से तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन करे एवं मृत्यु उपरान्त देव गति प्राप्त करे, ये सब बाते जैन सिद्धान्त के तो विरुद्ध है ही। साथ ही इस रोग के लिये भी मांस हानिकारक होने से इस औषध दान को मांसाहार के दान की कल्पना करना नितान्त अनुचित है।
श्रमण भगवान् महावीर जैसे महान् संयमी और महान तपस्वी, जिन्हों ने तप और संयम की साधक अवस्था में घोरातिघोर उपसर्गो तथा परीषहों को वीतराग भाव से सहन किया, नवकोटिक अहिसा को अपनी आत्मा में एकाकार करके विश्व के सामने एक महान् आदर्श उपस्थित किया, ऐसे करुणासागर, महान् अहिंसक निग्गंठ नायपुत्त (भगवान वर्धमान-महावीर)न तो मांसाहार स्वीकार कर सकते थे और न ही सिंह अनगार को लाने के लिये आजा दे सकते थे ।
१--इस बात का स्पष्टीकरण आगे करेंगे।