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हम तीर्थकर नामकर्म उपार्जन करने के लिये सोलह अथवा बीस भावनाओं का उल्लेख कर आये हैं । श्राविका रेवती की जीवनचर्या का अवलोकन करने से इन भावनाबों में से निम्न लिखित भावनाओं का सदभाव दान देते समय उस में था, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है:
१---दर्शन विशुद्धि, २-अर्हत् भक्ति, ३--शील तथा बारह व्रतों का पालन, ४--विनयसम्पन्नता, ५-त्याग (दान देना), ६-यावृत्य, ---साधुसमाधिकरण; इत्यादि ।
रेवती श्राविका के इस उपर्युक्त विवरण से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि-(१) वह एक श्रेष्ठ श्रमणोपासिका (१२ व्रत धारिणी श्राविका) थी। (२) निग्गंठ नायपुत्त (श्रमण भगवान महावीर) के लिये सिंह अनगार (निग्रंथ) को शुद्ध द्रव्य से तैयार की गयी औषध का दान देने के प्रभाव से तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया। (३) मृत्यु उपरान्त देव लोक में गयी। (४)श्राविका उन प्रमुख श्राविकाओं में से एक थी, जो श्रमण भगवान महावीर की तीन लाख अठारह हजार उत्कृष्ट श्राविकाएं थी। इस पर से तथा स्तम्भ नं.२ में हम श्रावक-श्राविकाओं के आचार का जो विवरण दे आये हैं उस पर से यह स्पष्ट जान सकते हैं कि ऐसे आचार वाली रेवती श्राविका मत्स्य-मांस-मदिरा इत्यादि सब प्रकार की अभक्ष्य वस्तुओं की स्वयं त्यागिनी थी, क्यों कि उसे अर्हत्-वचन पर दृढ़ श्रद्धा थी और उसने बारह व्रतों को ग्रहण करते समय श्रावक के सातवें "भोगोपभोग परिमाण" व्रत में इन अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग कर दिया था। वह यह भी जानती थी कि न तो अहंत-प्रवचन में श्रावक-श्राविका को मांसाहार बनाने की आज्ञा है, न ही तीर्थंकर देव मांसाहार ग्रहण करते हैं, तथा निग्रंथ श्रमणों को भी मासाहार लेने एवं करने की मनाही है । कहने का आशय यह है कि सात कुव्यसनों की त्यागिनी तथा बारह व्रतधारिणी होने के नाते मांस खरीद कर अथवा उठा कर न ला सकती थी, न पका सकती थी, और न ही स्वयं खा सकती थी। न ही निग्रंथ मुनि तथा तीर्थंकर के लिये मांसाहार दे सकती थी, वह यह भी भली-भांति जानती