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रणाम-गोते णं कम्मे निव्वतिते, (१) सेणितेणं, (२) सुपासेणं, (३) उदातिणा (४) पोट्टिलेणं अणगारेणं, (५) बढाउना, (६) संखेनं, (७) -सतगेणं, (८) सुलसाए, (९) साविकाते रेवतीते” ।
(ठाणांग सूत्र सू० ६९१ )
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• रेवती च बहुमानं
श्री अभयदेवसूरिकृत टीका : " तथा रेवती भगवत औषधदात्री कृतार्थमात्मानं मन्यमाना यथायाचितं तत्पात्रे प्रक्षिप्तवती । तेनाप्यानीय तद् भगवतो हस्ते विसृष्टं । भगवतापि वीतरागतयैवोदरकोष्ठे निक्षिप्तं, - ततस्तत्क्षणमेव क्षीणो रोगो जातः " (ठामाँग सूत्र पाठ की टीका )
अर्थात -१२ -- श्रमण भगवान् महावीर की सुलसा, रेवती प्रमुख तीन लाख अठारह हज़ार श्राविकाओं की उत्कृष्ट संख्या थी ।
२ – उनमें से गृहपति की भार्या रेवती श्राविका ने सिंह अनगार को शुद्ध द्रव्य दान देने से देवायु का बन्ध किया और जन्म-मरण रूप संसार का भी अन्त किया (मोक्ष प्राप्त करेगी )
३ - श्रमण भगवान् महावीर के जीवनकाल मे उनके तीर्थ में नौ प्राणियों ने तीर्थकर नामगोत्र का बन्ध किया। जिनके नाम हैं-- (१) श्रेणिक, (२) सुपार्श्व, (३) उदायी, (४) पोट्टिल अनगार, (५) दृढायु, (६) शंख, (७) शतक, (८) सुलसा तथा ( ९ ) श्राविका रेवती ।
इनमें से श्राविका रेवती, जो कि ( निग्गंठ नायपुत्त ) श्रमण भगवान् महावीर को औषध दान देने वाली थी । उस औषध दान देने के कारण उसने तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किया - यानी जिस कर्म के प्रभाव से अगले जन्म में वह तीर्थकर पद प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करेगी । ऐसी रेवती श्राविका ने अपने आप को कृतार्थ मानते हुए सिंह मुनि (अनगार) के द्वारा मांगी हुई औषध को मुनि के पात्र में डाल दिया। उस मुनि ने भी ( वह औषध ) ला कर भगवान् के हाथों में रख दी । श्रमण भगवान् महावीर ने भी वीतरागता पूर्वक उसे खाया और उन का रोग शान्त हुआ ।