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________________ ( ९२ ) उनका स्वरूप बतलाते । संभवतः बौद्धों में मृत मांस के प्रचार पाने का यही कारण प्रतीत होता है कि उनके यहाँ आत्मा को स्वतंत्र तस्व न मान कर पांच स्कन्धों का समूह रूप माना है; जिससे कि देहावसान के पश्चात् प्राणी के मृत मांस को मध्य मान लिया गया होगा ! जो हो । परन्तु जैन तीर्थंकर भगवन्तों ने प्राणियों के मृत कलेबर को भी असंख्यात कीटाणुओं का पुज मान कर सजीव माना है । और मांस मृत प्राणी के शरीर का होता है, फिर चाहे वह प्राणी किसी के द्वारा मारा गया हो अथवा अपने आप मरा हो, अतः मास असंख्य जीवित कीटाणुओं का पुंज होने से उसका भक्षण करने से महान् हिंसा का दोष लगता है, इस लिए जैन दर्शन ने इसे सर्वथा अभक्ष्य मान कर त्याज्य किया है । क्योकि जैनदर्शन मानता है कि आत्मा है, परमात्मा है, परलोक है, प्राणी अपने शुभ-अशुभ कर्म के अनुसार फल भोगता है । साराश यह है कि श्रमण भगवान महावीर के जीवन और उपदेश का संक्षिप्त रहस्य दो बातों में आजाता है : - आचार मे पूर्ण अहिमा और तत्त्वज्ञान में अनेकान्त, जिसके द्वारा उन्होंने धार्मिक और सामाजिक कान्ति कर भारत पर महान उपकार किया है, जो कि भारतवर्ष के मानसिक जगत में अब तक जागृत अहिमा, संयम और तप के अनुराग के रूप में जीवित है । भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध आत्मसाधना के एक ही पथ के दो पथिक थे। महात्मा बुद्ध अपने पथ से भटक गये और भगवान महावीर उस पथ को पार कर सफलता प्राप्त कर गये । २ - भगवान् महावीर की आज्ञा से औषध लाने वाले का आचार । इस औषध को लाने की आज्ञा देने वाले श्रमण भगवान महावीर हैं और लाने वाले पांच महाव्रतधारी महान तपस्वी मुनि श्री सिंह हैं, जो मनसा वाचा कर्मणा हिंसा तथा मांस भक्षण के विरोधी हैं (देखें निर्ग्रन्थ श्रमण का आचार, स्तम्भ नं ३ में ) ; स्वयं अहिंसा के महान् उपदेशक तथा स्वयं उसे आचरण में लाने वाले भी हैं । यदि उपदेशक किसी सिद्धान्त का
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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