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________________ एक ही चीज़ है । जिस प्रकार चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा, प्राण और स्वक् इंद्रियों को हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, वैसे मन को नहीं। हमें मन की सत्ता क्यों स्वीकार करनी पड़ती है ? आँखें इमली देखती हैं और जिह्वा से पानी टपकने लगता है । नाक दुर्गन्ध सूघती है और हाथ नाक पर पहुंच जाता है । आप देखते हैं, आँख और जिह्वा एक नहीं है, न वे एक दूसरे से मिली हुई हैं । इस लिए इन दोनों के मिलाने के लिए एक तीसरी इन्द्रिय चाहिये, और वह है मन । उक्त कारण से चक्षु आदि इन्द्रियों के अतिरिक्त हमें उन के संयोजक एक भीतरी इन्द्रिय को मानने की जरूरत पड़ती है, जिसे मन कहते है । इससे परे आत्मा की क्या आवश्यकता ? इत्यादि।" (बौद्ध दर्शन-राहुल सांकृत्यायन कृत) विचार के अनुसार ही आचार होता हैं । बौद्ध दर्शन मानता है कि आत्मा नहीं है, परमात्मा नहीं है। आत्मा नही तो कर्मबन्ध, पाप-पुण्य, परलोक-गमनादि किस का होता है ?-इत्यादि प्रश्नों का स्पष्टीकरण भी उनके लिये असंभव था। इसी लिए बुद्ध ने इन सब को अकथनीय कह कर टाल दिया था। बुद्ध से जब लोग प्रश्न करते थे कि (१) क्या लोक है ? (२) क्या लोक अनित्य है ? (३) क्या लोक अन्तवान है ? (४) क्या लोक अनन्त है ? (५) क्या जीव और शरीर एक है ? (६) क्या जीव दूसरा और शरीर दूसरा है ? (७) क्या मरने के बाद तथागत बुद्ध मुक्त होते हैं ? (८) क्या मरने के बाद तथागत बुद्ध मुक्त नहीं होते ? (९) क्या मरने के बाद तथागत बुद्ध होते भी हैं, नहीं भी होते ? (१०) क्या मरने के बाद तथागत न होते है, न नही होते? ये प्रश्न बुद्ध से मालुक्य पुत्र ने किये थे। यदि भगवान जानते है तो बतलावे । यदि नही जानते तो न जानने समझने वाले के लिए यही सीधी बात है कि वह साफ कह दे-मैं नहीं जानता, मुझे नहीं मालूम (म० नि० २/२ ३॥) । बुद्ध ने उत्तर दिया--ये दस अकथनीय हैं। यदि बुद्ध आत्मा-परमात्मा-परलोक आदि माने होते और उनका स्वरूप वे जानते होते तो इन्हें अकथनीय कह कर टाल न देते, परन्तु
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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