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क्योंकि उस समय निर्ग्रन्थ परम्परा का बहुत प्राधान्य था । उनके तप और त्याग से जनता आकृष्ट होती थी, जिससे निर्ग्रन्थों के प्रति उनका अधिक शुकाव व बौद्ध धर्मानुयायियों में आचार की शिथिलता को देखकर वह प्रश्न कर उठती थी कि आप तप की अवहेलना क्यों करते हैं ? तब बुद्ध को अपने शिथिलाचार की पुष्टि के लिये अपने पक्ष की सफाई भी पेश करनी थी और लोगों को अपने मन्तव्यों की तरफ खेंचना भी था । इस लिये वे निर्ग्रन्थों की आध्यात्मिक तपस्या को केवल कष्टमात्र और देहदमन बतला कर कड़ी आलोचना करने लगे ।
(ञ) भगवान् महावीर ने जीवात्मा को चैतन्यमय स्वतन्त्र तत्त्व माना है । अनादिकाल से यह जीवात्मा कर्मबन्धनों में जकड़ी हुई आवागमन के चक्कर मे फँसी हुई पुनः पुनः पूर्व देह त्यागरूप मृत्यु तथा नवीन देह प्राप्तिरूप जन्म धारण करती है। जीवात्मा शाश्वत है, इसमें चेतना रूप ज्ञान-दर्शनमय गुण हैं और कर्मो को क्षय करके शुद्ध पवित्र अवस्था को प्राप्त कर निर्वाण अवस्था प्राप्त कर सदा के लिये जन्ममरणरहित होकर शुद्ध स्वरूप मे परमात्मा बन जाती है। अतः आत्मा, परमात्मा, पाप, पुण्य, परलोक आदि को मानकर जैन दर्शन ने 'आत्मा है, परलोक है, प्राणी अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार फल भोगता है, इत्यादि सिद्धान्त स्वीकार किया है। भगवान महावीर के तत्त्वज्ञान का परिचय हम प्रथम खण्ड के पाँचवे स्तम्भ मे लिख आये हैं। उससे हमें स्पष्ट ज्ञात होता है कि ऐसे विचार वाला व्यक्ति किसी भी प्राणी का मांस भक्षण नही कर
सकता ।
परन्तु बुद्ध ने क्षण-क्षण परिवर्तनशील मन के परे किसी भी जीवात्मा को नहीं माना। मरने का मतलब है मनका च्युत होना । बौद्ध दर्शन अपने आप को अनात्मवादी और अनीश्वरवादी मानता है। उसका कहना है कि "आत्मा कोई नित्य वस्तु नहीं है परन्तु खास कारणों से स्कंधों ( भूत, मन ) के ही योग से उत्पन्न एक शक्ति है, जो अन्य बाह्य भूतों की भांति क्षण-क्षण उत्पन्न और बिलीन हो रही है । चित्त, विज्ञान, आत्मा