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बाध्य होना पड़ा, जिससे उनके जीवन में न तो खान-पान सम्बन्धी संयम ही रहा और न तप ही रहा। जिसके परिणाम स्वरूप वे अहिंसातत्व से अधिकाधिक दूर होते गये ।
परन्तु महावीर का तप शुष्क देहदमन नहीं था। वे जानते थे कि यदि तप के अभाव से सहनशीलता कम हुई तो दूसरों की सुख-सुविधा की आहुति देकर अपनी सुख-सुविधा बढ़ाने की लालसा बढ़ेगी और उसका फल यह होगा कि सयम न रह पायेगा । इसी प्रकार संयम के अभाव मे कोरा तप भी देहकष्ट की तरह निरर्थक है ।
(ङ) ज्यों-ज्यों भगवान् महावीर संयम और तप की उत्कटता से अपने आप को निखारते गये, त्यों-त्यों वे अहिसातत्व के अधिकाधिक निकट पहुंचते गये, त्यों-त्यों उनकी गम्भीर शांति बढने लगी और उसका प्रभाव आस-पास के लोगों पर अपने आप पड़ने लगा । मानम शास्त्र के नियम के अनुसार एक व्यक्ति के अन्दर बलवान होने वाली वृत्ति का प्रभाव आस-पास के लोगों पर जान-अनजान में हुए विना नही रहता । परन्तु बुद्ध तप और संयम को त्याग देने के कारण अहिंसा तत्त्व को पूर्ण रूप से अपने जीवन में उतारने में असमर्थ रहे । उनका अहिंसा तत्त्व उपदेश मात्र बन कर रह गया । परन्तु अपने और अपने अनुयायियों के आचरण में इसे पूर्ण रूप से न उतार सके । अतः इनका यह अहिंसा सिद्धांत खोया होकर रह गया ।
(च) अहिंसा का सार्वभौम धर्म दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर में परिप्लुत हो गया था, तब उनके सार्वजनिक जीवन के प्रभाव से मगध और विदेह देश का पूर्वकालीन मलिन वायुमंडल धीरे-धीरे शुद्ध होने लगा और वेद विहित पशु-बली यज्ञों को सदा के लिए देश निकाला मिल गया। माँसाहारियों की संख्या में एकदम कमी होने लगी। जो लोग मांसाहारी थे उनको जन साधारण अवहेलना की दृष्टि से देखने लगे । उस समय के अन्य संप्रदायों पर आपके अहिंसा धर्म की गहरी छाप पड़ी