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________________ स्वस्थ रहें), १६-वैयावृत्य करना (गुणवान् यदि कठिनाई में पड़े हों तो उन्हें कठिनाई से दूर करने का प्रयत्न करना), १७---अपूर्व (नयेनये ज्ञान को ग्रहण करना, १८-शास्त्र में भक्ति होना, १९-प्रवचन में भक्ति होना, २०-तीर्थंकर के सिद्धान्तों का प्रचार करना। इन कारणों से जीव तीर्थकर नामकर्म का बन्धन करता है। तत्त्वार्थसूत्र में १६ कारण तथा आगम-जाताधर्म कथांग में २० कारण तीर्थकर नामकर्म बांधने के दिये हैं। दोनों में किसी भी प्रकार का भेद नही हैं। सूत्रकार ने नं० १०-११-१२-१३ में अरिहन्त-आचार्यबहश्रत-शास्त्र को, आगम ने १-२-३-४-५-६-७ अरिहन्त-सिद्ध-प्रवचनआचार्य-स्थविर-बहुश्रुत-तपस्वी इस प्रकार विस्तार में सात भेद कर दिये हैं । इसी प्रकार आगमकार ने १७-१८ अपूर्व ज्ञान को ग्रहण करना, तथा शास्त्रभक्ति दो भेद किये हैं, जबकि सूत्रकार ने शास्त्रभक्ति में इन दोनो का समावेश करके १६ भेद कर दिये हैं। तीर्थकर नामकर्म के उपार्जन करने के लिए जो-जो भावनाएं बतलाई गयी है उन सब भावनाओं में सूत्रकार ने "दर्शनविशुद्धि" को सर्व-प्रथम रखा है। इससे यह बतलाया है कि इन बीस अथवा सोलह भावनाओं में से “दर्शनविशुद्धि" मुख्य है। इसके अभाव में दूसरी सब भावनाए हों तो भी "तीर्थकर नाम" का उपार्जन नहीं हो सकता और इसके सद्भाव में दूसरी भावनाएं हों अथवा न हों तो भी तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन हो सकता है। (अर्थात्-यदि जीव को जिनोपदिष्ट धर्म में सच्चा अनुराग हो तो ही तीर्थंकर गोत्र का आस्रव होना संभव ___ शास्त्रों में तीर्थकर नामकर्म के आस्रव के उपर्युक्त दानादि अलगअलग कारण जो बतलाये हैं, उनका अभिप्राय यही है कि जीव सम्यग्दर्शन' १-नादसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा। अमुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।। (उत्तराध्ययन अ० २८ सू० ३०)
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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