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वैयावृत्य करना (गुणवान को कठिनाई में से निकालना ) । १०-११-१२१३- अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और शास्त्र के प्रति शुद्ध निष्ठापूर्वक अनुराग रखना । १४. आवश्यक क्रिया को न छोड़ना ( सामायिकादि छ: आवश्यक का पालन करना) । १५. मोक्षमार्ग की प्रभावना (आत्मा के कल्याण के मार्ग को अपने जीवन में उतारना तथा दूसरों को उसका उपदेश देकर धर्म का प्रभाव बढ़ाना) । १६. प्रवचनवात्सल्य ( वीतराग सर्वज्ञ के वचनों पर स्नेहह - अनन्य अनुराग होना ) |
इन उपर्युक्त कार्यों में से एक अथवा अधिक कार्यों को करने से जीव तीर्थंकर पद को प्राप्त करने योग्य कर्म का बन्धन करता है। इस कर्म का नाम है तीर्थकर नामकर्म ।
बीस स्थानकों का वर्णन ज्ञाताधर्म कथांग आदि आगमों में"अरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर- बहुस्सुम - तबस्सीसु । वल्लया य तेसि अभिक्खणाणोवओगे य ॥१॥ ive fare Heere व सीलव्वए निरइयारे । लमलव तवाचियाए बेयावच्चे समाही य ॥२॥ अप्व्वणाण गहने सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एएहि कारणेहि तित्थयरतं लहइ जीवो ॥३॥
( ज्ञाताधर्म कथांग अ० ८ सूत्र ६४ )
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अर्थात् ~ १ - अरिहंतभक्ति, २ - सिद्धभक्ति, ३ - प्रवचनभक्ति, ४ - स्थविर (आचार्य) भक्ति, ५ - बहुश्रुतभक्ति, ६- तपस्वी वत्सलता, ७- निरन्तर ज्ञान में उपयोग रखना, ८ - दर्शन ( सम्यक्त्व ) को शुद्ध रखना, ९ - विनय सहित होना, १० - सामायिक आदि छः आवश्यको का पालन करना, ११ - अतिचार रहित शील और व्रतों का पालन करना, १२ - संसार को क्षणभंगुर समझना, १३ - शक्ति अनुसार तप करना १४ - शक्ति अनुसार त्याग ( दान ) करना, १५ - शक्ति अनुसार चतुर्विध संघ की तथा साधु की समाधि करना, (वैसा करना जिससे वे