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________________ मानो मिल्यात्यमान निहा वापिसिस्ता रापोनेवश्च नो रोषास्तेषामण्टावनाप्यनी॥ अभियान वि० को १, श्लो०७२-७३) अर्थात्--(१) मिथ्यात्व, (२) राग, (३) द्वेष, (४) अविरति, (५) कामवासना, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (९) शोक, (१०) भय, (११) जुगुप्सा (ये ११ दोष मोहनीय कर्म के क्षय से), (१२) निद्रा (दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से), (१३) अज्ञान (ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से), (१४) दानान्तराय, (१५) लाभान्तराय, (१६) भोगान्तराय, (१७) उपभोगान्तराय, (१८) वीर्यान्तराय (अन्तराय कर्म के भय से)--इन अठारह दोषों से रहित होते हैं। हम ऊपर लिख आये हैं कि तीर्थकर का जीव तीर्थकर होने से तीन भव पहले बीस स्थानक अथवा सोलह कारण का आराधन करके तीर्थंकर नाम गोत्र का बन्धन करते हैं । सो वे सोलह कारण ये हैं। "दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता, शीलवतेष्वनतिचारोऽभीषणशानोपयोगसंवेगो, शाक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाषियावृत्यकरणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सलस्वमिति तीर्थकरत्वस्य"। (तस्वार्थसूत्र अध्याय ६) १. दर्शनविशुद्धि, (वीतराग सर्वज्ञ के कहे हुए तत्त्वों पर निर्मल और दृढ़ श्रद्धा) । २. विनय सम्पन्नता (ज्ञानादि और उनके साधनों के प्रति निरतिचार-विनय बहुमान रखना)। ३. शीलवतानतिचार (शील और व्रतों में अत्यन्त अप्रमाद) । ४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग (ज्ञान में सतत उपयोग)। ५ अभीषण संवेग (सांसारिक भोग जो वास्तव में सुख के बदले दुःख के ही साधन बनते हैं उनसे डरते रहना अर्थात कमी भी इन के लालच में नहीं पड़ना) । ६-७-८-९ शक्ति के अनुसार त्याग और तप, चतुर्विध संघ और साधु की समाधि (स्वास्थ्य का ध्यान रखना) और
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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