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________________ अर्थ-रेवती श्राविका ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को औषधदान दिया। उस औषषदान देने से उसने तीर्थकर नामकर्म उपार्जन किया। अतः औषधदान भी देना चाहिये। इस उपर्युक्त उल्लेख से भी यही स्पष्ट है कि जैनधर्म के किसी भी सम्प्रदाय अथवा विभाग को इस औषध दान के विषय में-~-फिर वह चाहे श्वेताम्बर हो अथवा दिगम्बर--कोई मतभेद नहीं है । सभी को यह बात मान्य है कि यह औषध वनस्पति से ही तैयार की गयी थी। जैन तीर्थकर का प्राचार जो जीव तीर्थकर होते हैं, वे तीर्थकर होने से तीन भव पहले बीस स्थानक अथवा सोलह कारण (बीस प्रकार के कृत्य, जिनका समावेश सोलह कारणों में होता है) का आराधन करके तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करते हैं । यहाँ से काल करके (मत्यु पाकर).प्रायः स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। वहां से काल करके मनुष्य क्षेत्र में बहुत भारी समदि और परिवार वाले उत्तम शुद्ध राज्य कुल में जन्म लेते हैं । तीर्थकर होने वाले इन जीवों को माता के गर्भ में ही अवश्यमेव तीन ज्ञान मति, श्रुत, अवधि होते हैं। इनका शरीर व ऋषभनाराचसंहनन वाला होता है (वच के समान दृढ़ होता है), इनको आयु अनपवर्तनीय (किसी पातादि के निमित्त मे क्षय न होने वाली) होती है। ये महानुभाव संसार की मोहमाया-ममता का सर्वथा त्याग कर देते हैं। अपनी दीक्षा का समय तीर्थंकरों के जीव अपने ज्ञान से ही जान लेते हैं। इनका गृहस्थजीवन भी प्रायः अनासक्त होता है। दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले एक वर्ष तक दान देकर, यदि माता-पिता विद्यमान हों तो उनकी आज्ञा लेकर बड़े महोत्सव पूर्वक स्वयमेव दीक्षा ग्रहण करते हैं। किसी को गुरु नहीं बनाते, क्योंकि वे तो स्वयं ही त्रिलोकी के गुरु होने वाले होते हैं और मानवान् हैं। दीक्षा लेकर
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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