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समय के सभी जेन आचार्य इस औषधिदान को बनस्पतिपरक हो मानते थे। इस बात की पुष्टि के लिये और भी अनेक उल्लेख मिलते हैं । परन्तु विस्तारमय से इतने प्रमाण देना ही पर्याप्त है। सुज्ञेषु किं बहुना ?
इस विवेचन से यह भी स्पष्ट है कि जैनाचार्य हजारों वर्षों से इन शब्दों का अर्थ 'वनस्पतिपरक' ही करते आये हैं। अतः निगांठ नायपुत्त (श्रमण भगवान् महावीर) ने अपने रोग की शान्ति के लिये अथवा अन्य भी किसी समय मांसाहार कदापि ग्रहण नहीं किया । भगवान् महावीर के विषय में भगवती सूत्र के इस एक उल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई भी ऐसा उल्लेख नागमों अथवा जैन साहित्य में नहीं पाया जाता जिससे उनके विषय में मांसाहार करने की आशंका का होना संभव हो। इस चर्चास्पद सूत्रपाठ से भी यह बात स्पष्ट है कि इन शब्दों का अर्थ मांसपरक नही किन्तु वनस्पतिपरक है।
इस औषधदान पर दिगम्बर जैनों का मत दिगम्बर जैन संप्रदाय के विद्वान् भी रेवती (मेंढिक ग्राम वाली) के इस औषधदान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। रेवती ने जो तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया, उसका कारण भी यह औषधदान ही था, ऐसा कहते है । वह लेख यह है।
रेवतीमाविकया श्रीवीरस्य औषधवानं दत्तम् । तेनौषधिदानकालेन तीर्थकरनामकर्मोपार्जितमत एव औषषिदानमपि दातव्यम् ।"
(हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय बम्बई को जैन चरितमाला नं०६)