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त्रिपकंड
यह बात निर्विवाद है कि जैनधर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म है इसे कालकी परिधि में नहीं बांधा जा सकता (इसका हम जैनधर्म के प्रकरण में विस्तार से उल्लेख कर आये हैं) वर्तमान अवसर्पिणीकान में इस धर्म के आदि प्रवर्तक भगवान श्री ऋषभदेव (बादिनाथ)हुए हैं और क्रमशःवर्धमान महावीर तक २४ तीर्थकर धर्मप्रवर्तक हो चुके हैं। महावीर बुद्ध के समकालीन थे। शाक्यमुनि गौतमबुद्धदेव ने बुद्धधर्म की स्थापना की। तीर्थंकरों, श्रमणों, श्रमणियों की स्मृति में श्री ऋषभदेव से लेकर बाजतक जैनों ने स्तूपों का निर्माण किया है। जैन साहित्य में अनेक जैनस्तूपों के उल्लेख मिलते हैं। आचार्य जिनदत्त सरि के जैनस्तूपों में सुरक्षित शास्त्र भंडारों से कुछ ग्रंथ प्राप्त करने के उल्लेख मिलते हैं। जैनसमाट संप्रति मौर्य ने अपने पिता कुणाल के लिए तक्षशिला में स्तूप का निर्माण कराया था। जैनसाहित्य में तक्षशिला, कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर तीन स्तूपों, हस्तिनापुर में पांच स्तूपों, सिंहपुर (पंजाब), भगवान महावीर की निर्वाण भूमि पावापुरी आदि भारत में सर्वत्र जैनस्तूपों के निर्माण के प्रमाण मिलते हैं। मथुरा में सुपार्श्वनाथ के ध्वंस जैनस्तूपों की खुदाई से सैकड़ों जैनप्रतिमाएं आयागपट्ट आदि मिले हैं। वैशाली में अतिप्राचीनकाल से बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतस्वामी का जैनस्तूप तथा अन्य भी स्तूप थे। जिसका जिक्र बुद्ध ने अपने शिष्य आनन्द से किया है। जिसकी पूजा अर्चा वहां के राजा चेटक तथा प्रजा करते थे। उस मुनिसुव्रतस्वामी के स्तूप को वैशाली विजय करते समय ध्वंस कर दिया गया था। तक्षशिला में बीसों बैनस्तूप थे। काश्मीर में ई. पू. १५वीं शताब्दी में राजा सत्यप्रतिज्ञ अशोक, उसके पुत्र जलोक, ललितादित्य आदि अनेक राजाओं, मंत्रियों .आदि ने जैनस्तूपों का निर्माण कराया था। कलिंगाधिपति जैनराजा महामेघवाहन खारवेल ने (वि. पू.) उड़ीसा में खंडगिरि उदयगिरि पर्वत में जैनगफाओं का निर्माण कराया। भरत चक्रवर्ती, सम्प्रति मौर्य, नवनन्दों आदि ने, महाभारत-कालीन कांगडा (हिमांचलप्रदेश) केलिये आदि में अनेक चक्रवर्तियों, प्रतापी राजा, महाराजा हुए है। जिन्होंने जैनम्तृपों, गफाओं, गगनचम्बी मन्दिगें, जैनतीर्थों का निर्माण कगया था। ऐसे उल्लेख जैनमाहित्य और शिलालेखों में भरे पड़े हैं। मा होने पर भी बौद्ध-चीनीयात्रियों ने किमी भी जैनगफा का उल्लेख नहीं किया। कवि-कल्हण ने गजतर्गेगनी में कहा है कि काश्मीर के जैननरेशों द्वाग अनेक गजाओं महागजाओं, मंत्रियों, गृहस्थों ने जैनम्पनों. गुफाओं, मदिरों का निमार्ण कगया था विदेशी वौद्ध यात्रियों ने भारत में आकर जहां भी कोई स्तुप पाया उमे वौद्धों केनाम की घोषणा कर दी। कनिधम आदि ' पाश्चात्य पुरातत्ववेत्ताओं ने भी जैनम्तपों. घेगें को हमेशा बौद्धों का कहा है। यह आश्चर्य की बात है। ई. मं. १८९७ में बुलह साहब ने जव मथग के