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________________ ७४ भांत मान्यताओं की समीक्षा है। कुंड अथवा कोटि सर्वथा भिन्न हैं। कोट से कोटि का विकास हो सकता है। पुंड्रवर्धनमुक्ति में कोटिवर्ष नामक स्थान का विकास उसके प्राचीन नाम देवीकोट कोट से हुआ था। संभव है कि वैशाली के इस दक्षिण सीमांत पर कोई कोट या किला रहा हो जिससे कोटिग्राम नाम का विकास हुआ हो। किन्तु कुंड से तो इसकी कोई संगति स्थापित नहीं होती । ब्राह्मणकुंड और वासुकुंड में भी केवल कुंड शब्द की समानता हैं। अन्यथा ब्राह्मण और वसु सर्वथा भिन्न शब्द हैं। ब्राह्मण का एक प्राकृत रूप 'माहण' जैनसूत्रों में मिलता है और दूसरा प्राकृत रूप बमन आदि अशोक के शिला लेखों में मिलता है। ये दोनों प्राकृत रूप बिहार राज्य के कुछ ब्राह्मण ग्रामों के 'माहना और बमनगामा' जैसे आज भी मगध जनपद के लच्छुआड़ के आस-पास विद्यमान हैं। अतः ब्राह्मणकुंड से वामकुंड का विकास नहीं हो सकता । वासो का वासव या बसु का विकास हो सकता है। इस प्रकार ब्राह्मणकुंडग्राम अथवा क्षत्रियकुंडग्राम का इससे कोई संबंध नाम के अधार पर नहीं बन पाता है। भूगोल की दृष्टि से भी कोटिग्राम वैशाली का एक मोहल्ला नहीं हो सकता क्योंकि जब बद्ध अपनी अंतिम यात्रा में अम्बपालिका उद्यान से वैशाली को जा रहे थे तो रास्ते में अम्बपालिका, नालंदा, पाटलीग्राम, कोटिग्राम, नांदिका, वैशाली ये नगर आये थे। इसलिये सब नगर-ग्राम अलग अलग थे। एवं कोटिग्राम से वैशाली तीसरा नगर था । 60 १३. इतिहासकारों ने जिन प्राच्यविदों के मतों को प्रमाणिक मानकर वैशाली को भगवान महावीर का जन्मभूमि मान लिया है। उन में भी वैशाली में कुंडग्राम की पहचान के संबंध में मतभेद है, एक मत नहीं है । (१) बिसंटस्मिथ ने बसुकुंड को ब्राह्मणकुंडग्राम माना है। क्षत्रियकुंडग्राम केलिये वह एकदम मौन है। संभव है कि क्षत्रियकुंडग्राम के संबंध में वह जेकोबी के मत से सहमत हो । लेकिन बौद्धसूत्रों के कोटिग्राम, नादिका और आधुनिक वसुकुंड (प्राचीन नाम वासोकंड) की भौगोलिक स्थिति यह नहीं है। जो जैनसूत्रों में क्षत्रियकुंड और ब्राह्मणकुंड की है। जैनसूत्रों में क्षत्रियकुंड उत्तरदिशा में और ब्राह्मणकुंड दक्षिणदिशा में निर्दिष्ट है। जब कि वैशाली के मानचित्र में कोटिग्राम और आधुनिक वस्कुंड की स्थिति सर्वथा विपरीत है । वासोकुंड मुख्य वैशाली या विशालगढ़ से ठीक उत्तर में है। बौद्ध महापरिनिव्वाण सुत्त से पता चलता है कि कोटिग्राम पटना के सामने वैशाली की दक्षिण सीमान्त पर गंगा तटवर्ती (संभवत: हाजीपुर के समीप ) अवस्थित था । बुद्ध पाटलीग्राम से विहार करने के बाद उसके समीप ही गंगा को पार कर कोटिग्राम गये। वहां से आगे बढ़ कर
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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