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________________ ७३ अत्रियकंड (घ) बृहत्कल्पसूत्र विभाग २ पत्र २४२-४५ में लिखा है कि निवेशो नाम यत्र सार्थवा वसितः आदि ग्रहणेन ग्रामे वा अन्यत्र प्रस्थिताः सन् यत्रान्ते वासमद्यिवस्ति यात्रियो 'वागतो लोके। यत्र अधिष्ठति एष सर्वेऽपि निवेश उच्यते।। १० पटेल गोपालदास जीवाभाई द्वारा संपादित-श्री महावीर कथा पृ. ७९. से ८५ में (१) डा. हार्नले के आधार पर राजा सिद्धार्थ को सामान्य क्षत्रिय बतलाते हुए भी उन के राजत्व को स्वीकार कर लिया है (पृ. ७९) (२) इसी प्रकार विदेह, मिथिला, वैशाली और वाणिज्यग्राम को एक मान लिया है इसका प्रतिवाद हम पहले कर चुके हैं कि ये सब नगर अलग अलग थे। (३) पृ.८१ पर कुल का अर्थ घर किया है। कुल का अर्थ घराना होता है घर नहीं (४)पृ.२८९ में आनन्द श्रावक को ज्ञातृकल का लिखा है। जो कि नितांत प्रामक है। आनन्द कौटुम्बिक था न कि ज्ञातृक। बिना आगे-पीछे का विचार किये लिखने से ऐसी भलें पग-पग पर होना संभव है। ११. उवासगसाओ आगम में प्रयुक्त 'उच्च-नीच-मजिम कुलाई के आधार पर डा. हार्नले ने वाणिज्यग्राम के तीन विभाग करने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार दल्व के आये वैशाली वर्णन के साथ उसका मेल बैठाने का प्रयत्न करके वैशाली और वाणिज्यग्राम को एक बनाने की चेष्टा की है। जैसे साधओं केलिये नियम है कि साध कहीं भी ग्राम, नगर, सन्निवेश या कर्वट आदि में भिक्षार्थ जावे। वहां बिना वर्ण और वर्ग विभेद के ऊंच, नीच और मध्यम सभी वर्गों में भिक्षा ग्रहण करने से जिस प्रकरण को डा. महोदय ने उद्धत किया है, वहां भी भगवान ने गौतम स्वामी को भिक्षा केलिये अनुज्ञा देते हुए ऊंच, नीच और मध्यम सभी वर्गों में भिक्षा करने का आदेश दिया है। दशवैकालिक सूत्र (हरिभद्रीय टीका पत्र १६३ में साधु केलिये निर्देश है कि "गोचरः मध्यमाधमोच्च-कुलेब्व रक्ताद्विष्टस्य भिक्षाटनम्।। इसलिये इसे अपनी मान्यता को पुष्ट करने केलिये डा. महोदय का प्रयत्न व्यर्थ है। आगम अंतगढदसाओं में भी कहा गया है कि भगवान ने पुलासपुर द्वारिकादि में ऊंच, नीच, मध्यम कुलों में भिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया है। ऐसा ही वर्णन भगवतीसत्र आदि अन्य आगमों में भी आये हैं। अतः इसे वैशाली के प्रकरण में कैसे जोड़ा जा सकता है? १२. डा. जेकोवी ने कोटिग्राम और हार्नले ने कोल्लाग, वसुकंड आदि को ध्वनात्मकसाम्य के आधार पर कुंडग्राम से मिलाया है। किन्तु जैनसूत्रों में कंडग्राम का बोजमूत्रों के कोटिग्राम में रूपांतरण किसी भी युक्ति से संभव नहीं
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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