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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ १५ बहुरि स्वरूपविपर्यास कहै है - रूपादिक गुण निर्विकल्प है, कोऊ कहै - है ही नाहीं । कोऊ कहै - रूपादिकनि के जानने करि तिनके आकार परिणया ज्ञान ही है नाही, तिनका अवलंबन बाह्य वस्तुरूप है । असा विचार स्वरूप विष मिथ्यारूप जानना । या प्रकार कुमतिज्ञान का बल का आधार करि कुश्रुतज्ञान के विकल्प हो है । इनका सर्व मूल कारण मिथ्यात्व कर्म का उदय ही है, असा निश्चय करना ।
आगे सासादनगुणस्थान का स्वरूप दोय सूत्रनि करि कहै है -
आदिमसम्मत्तद्धा, समयादो छावलित्ति वा सेसे। अरणअण्णदरुदयादो, रणासियसम्मोत्ति सासरणक्खो सो॥१६॥ आदिमसम्यक्त्वाद्वा, आसमयतः षडावलिरिति वा शेषे ।
अनान्यतरोदयात् नाशितसम्यक्त्व इति सासानाख्यः सः ॥१९॥ . टीका-प्रथमोपशम सम्यक्त्व का काल विर्ष जघन्य एकसमय, उत्कृष्ट छह आवली अवशेष रहै, अनंतानुबंधी च्यारि कषायनि विषै अन्यतम कोई एक का उदय होते संतै, नष्ट कीया है सम्यक्त्व जानै असा होई, सो सासादन जैसा कहिए । बहरि वा शब्दकरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का काल विर्ष भी सासादन गुरणस्थान की प्राप्ति हो है । औसा (गुणधराचार्यकृत) कषायप्राभृतनामा यतिवृषभाचार्यकृत (चूर्णिसूत्र) जयधवल ग्रन्थ का अभिप्राय है ।
जो मिथ्यात्व तै चतुर्थादि गुणस्थाननि विष उपशम सम्यक्त्व होइ, सो प्रथमोपशम सम्यक्त्व है।
बहुरि उपशमश्रेणी चढते क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ते जो उपशम सम्यक्त्व होय, सो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व जानना।
सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो । गासियसम्मत्तो सो, सासरणणामो मुणयन्वो ॥२०॥ सम्यक्त्वरत्नपर्वतशिखरात् मिथ्यात्वभूमिसमभिमुखः । नाशितसम्यक्त्वः सः, सासननामा मंतव्य ॥२०॥
१ पट्खण्डागम - धवला पुस्तक - १, पृष्ठ १६७, गाथा १०८.