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[गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २१-२२ टोका - जो जीव सम्यक्त्वपरिणामरूपी रत्नमय पर्वत के शिखर ते मिथ्यात्वपरिणामरूपी भूमिका के सन्मुख होता संता, पडि करि जितना अतराल का काल एक समय आदि छह आवली पर्यन्त है, तिहि विष वर्ते, सो जीव नष्ट कीया है सम्यक्त्व जान, असा सासादन नाम धारक जानना ।
आगै सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वरूप गाथा च्यारि करि कहै है -
सम्मामिच्छुदयेण य, जत्तरसम्वधादिकज्जेरण । रण य सम्म मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदि परिणामो॥२१॥ सम्यग्मिथ्यात्वोदयेन च, जात्यंतरसर्वघातिकार्येण ।
न च सम्यक्त्वं मिथ्यात्वमपि च, सम्मिश्रो भवति परिणामः ॥२१॥
टीका - जात्यंतर कहिए जुदी ही एक जाति भेद लीए जो सर्वघातिया कार्यरूप सम्यग्मिथ्यात्व नामा दर्शनमोह की प्रकृति, ताका उदय करि मिथ्यात्व प्रकृति का उदयवत् केवल मिथ्यात्व परिणाम भी न होइ है । अर सम्यक्त्व प्रकृति का उदयवत् केवल सम्यक्त्व परिणाम भी न होइ है । तिहि कारण ते तिस सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का कार्यभूत जुदी ही जातिरूप सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाम मिलाया हूआ मिश्रभाव हो है, असा जानना ।।
दहिगुडमिव वामिस्सं, पुहभावं रणेव कारिदुं सक्कं । एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छोत्ति यादवो ॥२२॥१ दघिगुडमिव व्यामिश्र, पृथग्भावं नैव कर्तुं शक्यम् ।
एवं मिश्रकभावः, सम्यग्मिथ्यात्वमिति ज्ञातव्यम् ॥२२॥ टोका - इव कहिए जैसे, व्यामिश्रं कहिए मिल्या हुआ, दही अर गुड सो पृथग्भावं कर्तुं कहिए जुदा-जुदा भाव करने को, नैव शक्यं कहिए नाही समर्थपना है. एवं कहिए तैन, सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिल्या हूा परिणाम, सो केवल सम्यक्त्वभाव गरि अथवा केवल मिथ्यात्वभाव करि जुदा-जुदा भाव करि स्थापने की नाही नमयंपना है। इस कारण तें सम्यग्मिथ्यादृष्टि असा जानना योग्य है । समीचीन प्ररमोई मिथ्या, मो सम्यन्मिय्या असा है दृष्टि कहिए श्रद्धान जाकै, सो सम्यग्मिथ्या
-वटा सामान्यदना पुलर १, पृ. १७१-गा. १०६