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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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दृष्टी हो है । बहुरि असंयतादिक च्यारि गुणस्थानवर्ती जे मनुष्य, बहुरि असंयत, देशसंयत गुणस्थानवर्ती उपचार महाव्रत जिनके पाइए है, औसी आर्या स्त्री, ते कर्मभूमि के उपजे असे वेदक सम्यक्त्वी होंइ, तिनहीके केवली श्रुतकेवली दोन्यो विषे किसी का चरणां के निकट सात प्रकृति का सर्वथा क्षय होते क्षायिक सम्यक्त्व हो है, सो असें सम्यक्त्व का विधान कह्या ।
सो सम्यक्त्व सामान्यपने एक प्रकार है । विशेषपने १ मिथ्यात्व, २ सासादन ३ मिश्र, ४ उपशम, ५ वेदक, ६ क्षायिक भेद ते छह प्रकार है । तहा मिथ्यादृष्टी विषै तो मिथ्यात्व ही है । सासादन विषे सासादन है । मिश्र विषै मिश्र है । असयतादिक अप्रमत्त पर्यंत विषै उपशम ( औपशमिक), वेदक, क्षायिक तीन सम्यक्त्व है । अपूर्वकररणादि उपशात कषाय पर्यंत उपशमश्रेणी विषै उपशम, क्षायिक दोय सम्यक्त्व है। क्षपक श्रेणीरूप अपूर्वकरणादिक सिद्ध पर्यंत एक क्षायिक सम्यक्त्व ही है ।
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बहुरि नो इंद्रिय, जो मन, ताके आवरण के क्षयोपशम तै भया जो ज्ञान, ताकी संज्ञा कहिए । सो जिसके पाइए, सो संज्ञी है । जाकै न पाइए पर यथासंभव अन्य इन्द्रियनि का ज्ञान पाइए, सो असंज्ञी है ।, तहा सज्ञी मिथ्यादृष्टि आदि क्षीण कषाय पर्यंत है । असंज्ञी मिथ्यादृष्टी विषे ही है । सयोग प्रयोग विषै मन- इन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञान नाही है; तातै सज्ञी असज्ञी न कहिए है ।
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बहुरि शरीर पर अगोपाग नामा नामकर्म के उदय ते उत्पन्न भया जो शरीर वचन, मन रूप नोकर्म वर्गरणा का ग्रहरण करना, सो आहार है । विग्रहगति विषै वा प्रतर लोक पूर्ण महित सयोगी विषे वा प्रयोगा विषै वा सिद्ध विषै अनाहार है, तातै मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत, सयोगी इनि विषै तो दोऊ है । अवशेष नव गुरणस्थान विष आहार ही है । प्रयोगी विषै वा सिद्ध विषै अनाहार ही है ।
गुणस्थाननि विषै उपयोग कहै है ।
दोहं पंच य छच्चेव, दोसु मिस्सम्मि होंति वामिस्सा | सत्तुवजोगा सत्तसु, दो चेव जिरणे य सिद्धे य ॥७०५ ॥
द्वयोः पंच च षट्चैव, द्वयोमिश्रे भवंति व्यामिश्राः । सप्तोपयोगाः सप्तसु द्वौ चैव जिने च सिद्धे च ॥७०५ ॥