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________________ ૭૪૬ ] [ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाया ७०४ इहां प्रश्न - जो मिथ्यात्व कौं मिथ्यात्व प्रकृतिरूप कहा कीया ? ताकां समाधान - पूर्वे जो उस मिथ्यात्व की स्थिति थी, तामै प्रतिस्थापना - वली मात्र घटाव है, सो प्रतिस्थापनावली का भी स्वरूप मागे कहगे | जो अप्रमत्त गुणस्थान की प्राप्त हो है, सो अप्रमत्तस्यों-प्रमत्त में अर प्रमतस्यों- अप्रमत्त में संख्यात हजार बार आवै जाय है । ताते प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रमत्त विषे भी कहिए ते ए च्यार्यो गुणस्थानवर्ती प्रथमोपशमसम्यक्त्व का अंतर्मुहूर्त काल विषै जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवली अवशेष रहें, अर तहां अनंतांनुबधी की किसी प्रकृति का उदय होइ तौ सासादन होइ । बहुरि जो भव्यंता गुण का विशेष करि सम्यक्त्व गुण का नाश न होइ तो उस उपशम सम्यक्त्व का काल को पूर्ण होतें सम्यक्त्व प्रकृति के उदय ते वेदक सम्यग्दृष्टी हो है । बहुरि जो मिश्र प्रकृति का उदय होइ, तौ सम्यग्मियादृष्टी हो है । बहुरि जो मिथ्यात्व ही का उदय आवै तो मिथ्यादृष्टी ही होइ जाइ । . बहुरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व विषै विशेष है, सो कहा ? उपशम श्रेणी चढने के निमित्त कोई सातिशय अप्रमत्त वेदक सम्यग्दृष्टी तहां अप्रमत्तविषे तीन कररण की सामर्थ्य करि अनंतानुबंधी का प्रशस्तोपशम बिना अप्रतोपशम करि ऊपर के जे निषेक, जिनिका काल न आया है, ते तो है ही; जे नीचे के निपेक तानुवधी के है, तिनिको उत्कर्षण करि ऊपरि के निषेकनि विषै प्राप्त कर है वा विसयोजन करि अन्य प्रकृतिरूप परिणामावै है, असे क्षपाइ दर्शनमोह की तीन प्रकृति, तिनिका बीचि के निषेकनि का अभाव करने रूप अंतरकरण करि अतर कीया । वहुरि उपशमविधान करि दर्शनमोह की प्रकृतिनि को उपशमाइ, अंतर कीएं निषेक सवधी अतर्मुहूर्त काल का प्रथम समय विषै द्वितीयोपशम सम्यदृष्टी होइ, उपशम श्रेणी को चढि, क्रम तैं उपशात कषाय पर्यत जाइ, तहां अतर्मुहूर्त काल तिष्ठि करि, अनुक्रम ते एक एक गुणस्थान उतरि करि, अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त होइ, तहां अप्रमत्त स्यों प्रमत्त में वा प्रमत्त स्यों प्रप्रमत्त में हज़ारों बार श्राव जाइ, तहांस्यों नीचे देशसयत होइ, तहां तिष्ठ वा असंयत होइ तहां तिष्ठे । अथवा जो ग्यारह्नां श्रादि गुणस्थाननि विषे मरण होइ, तौ तहा स्यों अनुक्रम बिना देव पर्यायरूप असंयत हो है । वा मिश्र प्रकृति के उदय ते मिश्र गुणस्थानवर्ती हो है वा अनंतानुबंधी के उदय होते द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कौ विराध है; औसी किसी आचार्य की पक्ष की अपेक्षा सासादन हो है । वा मिथ्यात्व का उदय करि मिथ्या
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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