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सम्पन्जानचन्द्रिका भाषाटीका ] .
[ ७४७ है । तहां असंयत पर्यत तौ छहौ लेश्या है। देशसंयतादि अप्रमत्त पर्यत विष तीन शुभलेश्या ही है। अपूर्वकरणादि सयोगी पर्यंत विष शुक्ललेश्या ही है। अयोगी, योग के अभाव तै लेश्या रहित है। . .
सामग्रीविशेष करि रत्नत्रय वा अनंत चतुष्टयरूप परिणमने कौ योग्य, सो भव्यं कहिए। परिणमने को योग्य नाहीं, सो अभव्य कहिए । इहा अभव्य राशि जघन्य युक्तानन्त प्रमाण है । संसारी राशि में इतना घटाए, अवशेष रहै, तितने भव्य सिद्ध है । सो भव्य तीन प्रकार - १ आसन्नभव्य, २ दूरभव्य, ३ अभव्यसमभव्य । जे थोरे काल में मुक्त होने योग्य होइ, ते आसन्नभव्य है । जे बहुत काल मे मुक्त होने होइ, ते दूर भव्य है। जे त्रिकाल विर्षे मुक्त होने के नाही, केवल मुक्त होने की योग्यता ही कौ धरै है, ते अभव्यसम भव्य है। सो इहा मिथ्यादृष्टी विषै भव्य-अभव्य दोऊ है । सासादनादि क्षीणकषायपर्यंत विष एक भव्य ही है । सयोग-अयोग विष भव्य अभव्य का उपदेश नाहीं है। ..
') बहुरि अनादि मिथ्यादृष्टी जीव क्षयोपशमादिक पचलब्धि का परिणामरूप परिणया। तहां मिथ्यादृष्टी ही विषे करण कीए, तहा अनिवृत्तिकरण का अंत समय विषै अनतानुबधी पर मिथ्यात्व इनि पचनि का उपशम करि ताके अनतर समय विष मिथ्यात्व का ऊपरि के वा नीचे के निषेक छोडि, बीचि के निषेकनि का अभाव करना; सो अतर कहिए, सो अंतर्मुहूर्त के जेते समय तितने निषेकनि का अभाव अनिवृत्तिकरण विषे ही कीया था, सो तिनि निषेकनिरूप जो अतरायाम सबधी अतर्मुहर्त काल, ताका प्रथम समय विष प्रथमोपशम सम्यक्त्व को पाइ असयत हो है। वा प्रथमोपशम सम्यक्त्व पर देशव्रत, इनि दोऊनि को युगपत् पाइ करि देशसयत हो है । अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर महाव्रत, इनि दोऊनि को युगपत् पाइ करि अप्रमत्तसंयत हो है। तहां तिस पावने के प्रथम समय तै लगाइ, अंतर्मुहूर्त ताई गुण संक्रमण विधान करि मिथ्यात्वरूप द्रव्यकर्म को गुणसक्रमरण भागहार करि घटाइ घटाइ तीन प्रकार कर है । गुणसक्रमण विधान अर गुणसक्रमण भागहार का कथन आगे करैगे, तहां जानना । सो मिथ्यात्व प्रकृति रूप अर सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृतिरूप । वा सम्यक्त्व प्रकृतिरूप असे एक मिथ्यात्व तीन प्रकार तहा कीजिए है; सो इनि तीनो का द्रव्य जो परमाणूनि का प्रमाण, सो असंख्यात गुणा, असख्यात गुणा घाटि अनुक्रम तै जानना।