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। गोम्मटसार जीवकाश गाया ७०४ टीका - गुण पर्यायवान् वस्तु है, ताके ग्रहणरूप जो व्यापार प्रवर्तन, सो उप योग है । ज्ञान है, सो जानने योग्य जो वस्तु, तातै नाहीं उपज हैं । सो कह्या है -'
स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः, परिच्छेद्यः स्वतो यथा ।
तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं, परिच्छेदात्मकं स्वतः ॥१॥ याका अर्थ - जैसे वस्तु अपने ही उपादान कारण तें निपज्या, आपही तें जानने योग्य है । तैसे ज्ञान अपने ही उपादान कारण ते निपज्या, आपही ते जाननेहारा है । बहुरि ज्ञेय पदार्थ पर प्रकाशादिक ए ज्ञानका कारण नाही, जात ए तो ज्ञेय है । जैसे अंधकार ज्ञेय है, तैसे ए भी ज्ञेय है - जानने योग्य है । जानने कौं कारण नाही, असा जानना । बहुरि सो उपयोग ज्ञान दर्शन के भेद ते दोय प्रकार है। तहां कुमति, कुश्रुत, विभंग, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल भेद ते ज्ञानोपयोग आठ प्रकार है । चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल भेद तें दर्शनोपयोग च्यारि प्रकार है। तहां मिथ्यादृष्टी सासादन विष तो कुमति, कुश्रुत, विभंग ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, दर्शन ए पांच उपयोग है । बहुरि मिश्रविष मिश्ररूप मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन, ए छह उपयोग है । असंयत देशसंयत विष मति, श्रुत, अवधिज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन ए छह उपयोग है । प्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत विर्षे तेई मन:पर्यय सहित सात उपयोग है । सयोगी, अयोगी, सिद्ध विर्ष केवलज्ञान केवलदर्शन ए दोय उपयोग है। इति प्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसंग्रह ग्रंथ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नाम सस्कृत टीका के अनुसार सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा भाषाटीका विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा, तिनि विषै गुणस्थाननिविषै बीस प्ररूपणा निरूपण
नामा इकवीसवां अधिकार सम्पूर्ण भया ॥२१॥