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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भापाटोका ]
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रिक मिश्रयोग पाइए है । बहुरि औदारिक वा औदारिक- मिश्र ए दोऊ योग मनुष्य
र तिर्यचनि ही के है, औसा जिनदेवने का है । वहुरि औदारिक विषै ती पर्याप्त सात जीवसमास है, अर श्रदारिक मिश्र विषे अपर्याप्त सात जीवसमास अर सयोगी के एक पर्याप्त जीवसमास से आठ जीवसमास है ।
वेगुव्वं पज्जत्ते, इदरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु ।
सुर- णिरय - चउट्ठाणे, मिस्से ण हि मिस्सजोगो हु ॥ ६८२ ॥
वैगूवं पर्याप्ते, इतरे खलु भवति तस्य मिश्रं तु । सुरनिरयचतुःस्थाने, मिश्रे नहि मिश्रयोगो हि ॥ ६८२ ॥
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टीका - वैक्रियिक योग पर्याप्त देव, नारकीनि के मिथ्यादृष्टी ते लगाइ च्यारि गुणस्थाननि विषै हैं । बहुरि वैक्रियिक-मिश्र योग मिश्रगुणस्थान विपं नाही; तातं देवनारकी संबंधी मिथ्यादृष्टी, सासादन, प्रसंयत इनही विपे है । बहुरि जीवसमास वैक्रियिक विषै एक सैनी पर्याप्त है । अर वैक्रियिक मिश्र विपं एक सैनी निर्वृत्तिअपर्याप्त है ।
आहारो पज्जत्ते, इदरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु । अंतोमुहुत्तकाले, छट्ठगुणे होदि श्राहारो ॥ ६८३ ॥
आहारः पर्याप्ते, इतरे खलु भवति तस्य मिश्रस्तु | अंतर्मुहूर्त काले, षष्ठगुणे भवति श्राहारः ।।६८३ ||
टीका - आहारक योग सैनी पर्याप्तक छट्ठा गुणस्थान विपं जघन्यपने वा उत्कृष्टपर्ने अतर्मुहूर्त काल निषै ही है । वहुरि आहारक-मिश्र योग हैं, तो उतर जो सज्ञी अपर्याप्तरूप छट्टा गुणस्थान विषै जघन्यपर्ने वा उत्कृष्टपने अतर्मुहूर्त काल वि ही हो है । तातै तिन दोऊनि के गुणस्थान एक प्रमत्त यर जीवरामाम सोई एक एक
जानना ।
श्रोलियमिस्सं वा, चउगुणठाणेसु होदि कम्मइयं । चदुर्गादिविग्गहकाले, जोगिस्स य पदरलोगपूरणगे ॥ ६८४ ॥
श्रौरालिकमिश्रो वा, चतुर्गुणस्थानेषु भवति कार्मणम् । चतुर्गतिविग्रहकाले, योगिनश्च प्रतरलोकपूरणके ।।६८४ ।।