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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६६५-६६७
टीका - कार्मारयोग औदारिक मिश्रवत् च्यारि गुणस्थाननि दिये है । सो कार्मारणयोग च्यार्यो गति संबंधी विग्रहगति विषे वा सयोगी के प्रतर लोक पूरण काल विषै पाइए है । तातें गुणस्थान च्यारि नर जीवसमास आठ श्रदारिक मिश्र - वत् इहां जानने ।
थावरकायप्पहूदी, संढो सेसा असणिश्रादी य । अणियट्टिस्स य पढमो, भागो त्ति जिर्णोह णिद्दिट्ठ ||६८५ ||
स्थावरकायप्रभृतिः, षंढः शेषा श्रसंस्यादयश्व ।
अनिवृतेश्च प्रथमो, भागः इति जिनैर्निदिष्टम् ||६८५।।
टीका - वेदमार्गणा विषै नपुंसकवेद है, सो स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी तें लगाइ निवृत्तिकरण का पहिला सवेद भागपर्यंत हो है; तातै गुणस्थान नव, जीवसमास सर्व चौदह है । बहुरि शेष स्त्रीवेद र पुरुषवेद सैनी, असैनी पंचेंद्रिय मिथ्यादृष्टी तें लगाइ, अनिवृत्तिकरण का अपना-अपना सवेद भागपर्यंत है । तातै गुणस्थान नव, जीवसमास सैनी, असैनी, पर्याप्त वा अपर्याप्तरूप च्यारि जिनदेवनि करि कहे हैं ।
थावरकायप्पहूदी, श्रणियट्टीबितिचउत्थभागो त्ति । कोहतियं लोहो पुण, सुहुमसरागो ति विष्णेयो ॥ ६८६ ॥
स्थावर कायप्रभृति, अनिवृत्तिद्वित्रिचतुर्थभाग इति ।
क्रोधत्रिकं लोभः पुनः, सूक्ष्मसराग इति विज्ञेयः ॥ ६८६ ॥
टीका - कषायमार्गणा विषे स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ क्रोध, मान, माया त क्रमते श्रनिवृत्तिकरण का दूसरा, तीसरा, चौथा भागपर्यत है । अर लोभ सूक्ष्मसांपराय पर्यंत है; तातै क्रोध, मान, माया विषै गुणस्थान नव, लोभविषै दश; र जीनसमास सर्वत्र चौदह जानने ।
थावरकायप्पहूदी, मदिसुदश्रण्णाणयं विभंगो दु । सणीपुण्णप्पहूदी, सासरणसम्मो त्ति णायव्वो ॥ ६८७ ॥
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स्थावर काय प्रभृति, मतिश्रुताज्ञानकं विभंगस्तु । संज्ञिपूर्णप्रभृति, सासनसम्यगिति ज्ञातव्यः ||६८७ ।।