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[ गोम्मटसार नीवकाम गाथा ६७६-६८१ ७३४] जीवसमास है। बहुरि कायमार्गणा विष पृथ्वी आदि पंच स्थावरनि में एकेंद्रियवत् च्यारि च्यारि जीवसमास है । त्रस विषै अवशेष दश जीवसमास हैं।
मझिम-चउ-मण-वयरणे, सण्णिप्पदि दु जाव खीणो त्ति । सेसारणं जोगि ति य, अणुभयवयणं तु वियलादो ॥६७६॥
मध्यमचतुर्मनवचनयोः, संशिप्रभृतिस्तु यावत् क्षीण इति ।
शेषारणां योगीति च, अनुभयवचनं तु विकलतः ॥६७९।। टोका - मध्यम जो असत्य अर उभय मन वा वचन इनि च्यारि योगनि विष सैनी मिथ्यादृष्टी ते लगाइ क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान हैं। बहुरि सत्य पर अनुभव मनोयोग विर्ष अर सत्य वचन योग विष सैनी पर्याप्त मिथ्यादृष्टी ते लगाइ सयोगी पर्यंत तेरह गुणस्थान हैं। बहुरि इनि सबनि विर्षे जीवसमास एक सैनी पर्याप्त है । बहुरि अनुभय वचनयोग विष विकलत्रय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ तेरह गुणस्थान हैं । बहुरि बेइंद्री, तेइंद्री, चौइद्री, सैनी पंचेद्री, असैनी पंचेंद्री इनका पर्याप्तरूप पांच जीवसमास है।
ओरालं पज्जत्ते, थावरकायादि जाव जोगो त्ति । तम्मिस्समपज्जत्ते, चदुगुणठारणेसु णियमेण ॥६८०॥
औरालं पर्याप्ते, स्थावरकायादि यावत् योगीति ।
तन्मिश्रमपर्याप्ते, चतुर्गुणस्थानेषु नियमेन ॥६८०॥ टोका - औदारिक काययोग एकेद्री स्थावर पर्याप्त मिथ्यादृष्टी तै लगाइ, सयोगी पर्यंत तेरह गुणस्थाननि विष है। बहुरि औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्त च्यारि गुणस्थाननि विषै ही है नियमकरि । किनविषै ? सो कहै है
मिच्छे सासरणसम्मे, पुवेदयदे कवाडजोगिम्मि । णर-तिरिये वि य दोण्णि वि, होति त्ति जिणेहि णिहिट्ठ॥६८१॥
मिथ्यात्वे सासनसम्यक्त्वे, पुवेदायते कपाटयोगिनि ।
नरतिरश्नोरपि च द्वावपि भवंतीति जिननिर्दिष्टम् ॥६८१॥ टोका - मिथ्यादृष्टी, सासादन पुरुषवेद का उदय करि संयुक्त असंयत, कपाट समुद्घात सहित सयोगी इनि अपर्याप्तरूप च्यारि गुणस्थाननि वि, सो औदा