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तम्यशानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ७१६ दर्शनमोहोदयादुत्पद्यते यत्पदार्थश्रद्धानम् ।
चलमलिनमगाढं तद् वेदकसम्यक्त्वमिति जानीहि ॥६४९॥ टीका - दर्शनमोह का भेद सम्यक्त्वमोहनी, ताका उदय करि जो तत्त्वार्थ श्रद्धान चल वा मल वा अगाढ होइ, सो वेदक सम्यक्त्व है; असा तू जानि । चल, मलिन, अगाढ का लक्षण पूर्व गुणस्थानप्ररूपणा विषे कह्या है।
आगे उपशम सम्यक्त्व का स्वरूप अर तिस ही की सामग्री का विशेष तीन गाथानि करि कहै हैं
दसणमोहवसमदो, उप्पज्जइ जं पयत्थसहहणं। - उवसमसम्मत्तमिणं, पसण्णमलपंकतोयसमं ॥६५०॥
दर्शनमोहोपशमानुत्पद्यते यत्पदार्थश्रद्धानम् ।
उपशमसम्यक्त्वमिदं प्रसन्नमलपंकतोयसमम् ॥६५०॥ - टीका - अनंतानुबंधी की चौकड़ी अर दर्शनमोह का त्रिक, इनि सात प्रकृतिनि के उदय का अभाव है लक्षण जाका असा प्रशस्त उपशम होनेते जैसे कतक फलादिक ते मल कर्दम के नीचे बैठने करि जल प्रसन्न हो है; तैसे जो तत्वार्थ श्रद्धान उपजै, सो यहु उपशम नामा सम्यक्त्व है।
खयउवसमिय-विसोही, देसण-पाउग्ग-करणलद्धीय । चत्तारि वि सामण्णा, करणं पुरण होदि सम्मत्ते ॥६५१॥
क्षायोपशमिकविशुद्धी, देशना प्रायोग्यकरणलब्धी च ।
चतस्रोऽपि सामान्याः करणं पुनर्भवति सम्यक्त्वे ॥६५१।। टीका - सम्यक्त्व के पूर्व जैसा कर्म का क्षयोपशम चाहिए तैसा होना, सो क्षयोपशमिकलब्धि । बहुरि जैसी विशुद्धता चाहिए तैसी होनी, सो विशुद्धिलब्धि । बहुरि जैसा उपदेश चाहिए तैसा पावना, सो देशनालब्धि । बहुरि पचेंद्रियादिक रूप योग्यता जैसी चाहिए तैसी होनी, सो प्रायोग्यलब्धि । बहुरि अध , अपूर्व, अनिवृत्तिकरणरूप परिणामनि का होना, सो करणलब्धि जाननी ।
तहां च्यारि लब्धि तो सामान्य है; भव्य-अभव्य सर्व के हो हैं । वहुरि करणलब्धि है, सो भव्य के ही हो है । सो भी सम्यक्त्व अर चारित्र का ग्रहण विप ही हो है।