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इस ही अर्थ को कहै हैं
वयहिं विहिं वि, इंदियभयआणएहि रूवेहि । बीभच्छजुगंछाहिं य, तेलोक्केण वि ण चालेज्जो' ॥६४७॥
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६४७-६४९
वचनैरपि हेतुभिरपि इंद्रियभयानीतैः रूपैः ।
बीभत्स्य जुगुप्साभिश्च त्रैलोक्येनापि न चाल्यः ॥ ६४७॥
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टीका श्रद्धान नष्ट होने की कारण से कुत्सित वचननि करि वा कुत्सित हेतु दृष्टांतनि करि वा इंद्रियनि को भयकारी से विकाररूप अनेक भेप प्राकारनि करि वा ग्लानि कौं कारण औसी वस्तु तै निपज्या जुगुप्सा, तिन करि क्षायिक सम्यक्त्व चले नाही । बहुत कहा कहिए तीन लोक मिलि करि क्षायिक सम्यक्त्व कौं चलाया चाहे तो क्षायिक सम्यक्त्व चलावने की समर्थ न होइ ।
सो क्षायिक सम्यक्त्व कौन के हो है ? सो कहै है
दंसणमोहक्खदणापट ठवगो कम्मभूमिजादो हु । मणुसो केवलिमूले, णिट्ठवगो होदि सव्वत्थ ॥ ६४८॥
दर्शन मोहक्षपणाप्रस्थापकः कर्मभूमिजातो हि ।
मनुष्यः केवलिले, निष्ठापको भवति सर्वत्र || ६४८ ॥
टीका - दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारंभ तौ कर्मभूमि का उपज्या मनुष्य ही
का केवली के पामूल विषै ही हो है । अर निष्ठापक सर्वत्र च्यारयों गति विषै हो है ।
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भावार्थ जो दर्शन मोह का क्षय होने का विधान है, तिसका प्रारंभ तौ केवली वा श्रुतकेवली के निकट कर्मभूमिया मनुष्य ही करें है । बहुरि सो विधान होतें मरण हो जाय तौ जहां संपूर्ण दर्शन मोह के नाश का कार्य होइ निवरै, तहां ताक निष्ठापक कहिए, सो च्यार्यों गति विषै हो है ।
आगै वेदक सम्यक्त्व का स्वरूप कहै हैं
दंसणमोहुदयादो, उप्पज्जई जं पयत्थसद्दहणं । चलमलिणमगाढं तं वेदयसम्मत्तमिदि जाणे ॥ ६४६ ॥
१. पट्खण्डागम धवला पुस्तक-१ पृष्ठ ३१७, गाथा स. २१४ ।
२. पट्खण्डागम घवला पुस्तक-१ पृष्ठ ३१८, गाथा स. २१५ ।