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सम्मशानचन्त्रिका भावाटोका ]
। ७१७ टीका - बहुरि बंध द्रव्य भी समयप्रबद्ध प्रमाण है; जाते एक समय विष समयप्रबद्ध प्रमाण कर्म परमाणूनि ही का बंध हो है। बहुरि मोक्ष द्रव्य किचिदून द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण है; जाते अयोगी के चरम समय विष द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्व प्रमाण सत्ता पाइए । 'तिस ही का मोक्ष हो है। इस प्रकार तत्वार्थ है, ते श्रद्धान करणे, इस तत्त्वार्थ श्रद्धान ही का नाम सम्यक्त्व
आगे सम्यक्त्व के भेद कहै हैखीणे दंसणमोहे, जं सद्दहणं सुणिम्मलं होई । तं खाइय-सम्मत्तं, णिच्चं कम्म-क्खवण-हेदू ॥६४६॥
क्षीणे दर्शनमोहे, यच्छद्धानं सुनिर्मलं भवति ।
तत्क्षायिकसम्यक्त्वं नित्यं कर्मक्षपणहेतुः ॥६४६॥ टीक - मिथ्यात्व मोहनी, सम्यग्मिथ्यात्व मोहनी, सम्यक् मोहनी अर अनंतानुबधी की चौकड़ी इनि-सात प्रकृतिनि का करणलब्धिरूप परिणामनि का बल ते नाश होत संतै जो अति निर्मल श्रद्धान होइ, सो क्षायिक सम्यक्त्व है। सो प्रतिपक्षी कर्म का नाश करि आत्मा का गुण प्रगट भया है; तातै नित्य है । बहुरि समय समय प्रति गुणश्रेणी निर्जरा को कारण है। तातै कर्मक्षय का हेतु है । उक्त च
दंसरणमोहे खविदे, सिज्झदि एक्केव तदियतुरियभवे ।
रणादिक्कदि तुरियभवं रण विरणस्सदि सेस सम्मं च ।। दर्शन मोह का क्षय होते, तीहिं भव विषै वा देवायु का बध भए तीसरा भव विर्ष वा पहिलै मिथ्यात्वदशा विर्षे मनुष्य, तिर्यचआयु का बध भया होइ तौ चौथा भव विष सिद्ध पद को प्राप्त होइ, - चौथा भव को उलंघे नाही। बहुरि अन्य सम्यक्त्ववत् यह क्षायिक सम्यक्त्व विनशै भी नाही, तीहिस्यों नित्य कहा है। सादि अक्षयानत है । आदि सहित अविनाशी अंत रहित है; यह अर्थ जानना।
१. पटखण्डागम धवला. पुस्तक-१, पृष्ठ ३६७, गाथा स.२१३ ।