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[ गोम्मटसार जीवकाड गाथा ५६० ष्टपना नाही है । जाते परंपरा सिद्धांत विष तिनके जघन्य उत्कृष्टपने का उपदेश का अभाव है। ... इहां प्रासंगिक (उक्त च) गाथा कहैं हैं
अगहिदमिस्सं गहिद, मिस्समगहिदं तहेव गहिदं च ।
मिस्सं गहिदमगहिवं, गहिद मिस्सं अगहिदं च ।। पहिला - अगृहीत, मिश्र, गृहीतरूप; दूसरा - मिश्र, अगृहीत, गृहीतरूप; तीसरा - मिश्र, गृहीत, अगृहीतरूप; चौथा - गृहीत, मिश्र, अगृहीतरूप परिवर्तन भए द्रव्य परिवर्तन हो है । सो विशदरूप पूर्वे करा ही है। उक्तंच (आर्या छंद)
सर्वेऽपि पुद्गलाः, खल्वेकेनात्तोज्झिताश्च जीवेन ।
ह्यसकृत्त्वनंतकृत्वः, पुद्गलपरिवर्तसंसारे ॥ एक जीव पुद्गल परिवर्तनरूप संसार विष यथा योग्य सर्व पुद्गल वारंवार अनंत वार ग्रहि छांडै है।
आगे क्षेत्र परिवर्तन कहिए हैं - सो क्षेत्रपरिवर्तन दोय प्रकार - एक स्वक्षेत्र परिवर्तन, एक परक्षेत्र परिवर्तन ।
तहां स्वक्षेत्र परिवर्तन कहिए हैं - कोई जीव सूक्ष्म निगोदिया की जघन्य अवगाहना को धारि उपज्या, अपना सांस का अठारहवां भाग प्रमाण आयु कौं भोगि मूवा, बहुरि तिस ते एक प्रदेश बधती अवगाहना कौं धरै, पीछे दोय प्रदेश बधती अवगाहना की धरै, असे एक - एक प्रदेश अनुक्रम ते बधती - बधती महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत सख्यात धनांगुल प्रमाण अवगाहना के भेदनि कौं सोई जीव प्राप्त होइ । जे अवगाहना के भेद है, ते सर्व एक जीव अनुक्रम ते यावत्काल विर्षे धारै, सो यहु सर्व समुदायरूप स्वक्षेत्र परिवर्तन जानना।
अब परक्षेत्र परिवर्तन कहिये हैं
सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक जघन्य अवगाहनारूप शरीर का धारक सो लोकाकाश के मध्य जे आठ आकाश के प्रदेश है, तिनको अपने शरीर की भवगा हना के मध्यवर्ती आठ प्रदेश करि अवशेष, उनके निकटवर्ती अन्य प्रदेश, तिवकों रोक करि उपज्या, सांस का अठारहवां भाग मात्र क्षुद्र भव काल जीय करि मूवा । बहुरि सोई जीव तैसे ही अवगाहना को धारि, तिस ही क्षेत्र विषै दूसरा उपज्या, सो असे