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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६५१ हना कौं प्राप्त भया, तहां क्षेत्र परिवर्तन का अनुक्रम विषै तौ पहिले जघन्य अवगाहना पाई थी, अर पीछे दूसरी बार अनुक्रमरूप अवगाहना पाई, सो गिणने मे आव है । अर क्षेत्र परिवर्तन का काल विर्ष बीचि में अनुक्रम रहित अवगाहना पावने का काल सहित सर्व काल गिणने में आवै है । जैसे ही सर्व विष जानि लेना।
अब इहा द्रव्य परिवर्तन विष काल का परिमाण कहै है । तहा अगृहीत ग्रहण का काल अनंत है; तथापि यह सर्व ते स्तोक है । जातै जिनि पुद्गलनि स्यौ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि का संस्कार नष्ट है, ते पुद्गल बहुत बार ग्रहण में आवते नाही, याही ते विवक्षित पुद्गल परिवर्तन के मध्य गृहीत पुद्गलनि का ही बहुत बार ग्रहण संभव है । सोई कह्या है -
सुहुमढिदिसंजुत्तं, आसण्णं कम्मणिज्जरामुक्कं ।
पाएण एदि गहणं, दव्वमरिणहिट्ठसंठाणं ॥
जे पुद्गल कर्मरूप परिणए थे, अर जिनकी स्थिति थोरी थी, अर निर्जरा होते कर्म अवस्था करि रहित भए है अर जीव के प्रदशनि स्यो एक क्षेत्रावगाही तिष्ठे है, अर संस्थान आकार जिनिका कह्या न जाय अर विवक्षित पुद्गल परिवर्तन का पहिला समय विष जिस स्वरूप ग्रहण में आए, तिसकरि रहित होंइ, असे पुद्गल, जीव करि बाहुल्य पनै समयप्रबद्धनि विर्ष ग्रहण कीजिए है । असा नियम नाहीं, जो जैसे ही पुद्गलनि का ग्रहण करै, परतु बहुत वार असे ही पुद्गलनि का ग्रहण हो है, जातें ए पुद्गल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का सस्कार करि सयुक्त है।
बहुरि अगृहीत ग्रहण के काल ते मिश्र ग्रहण का काल अनत गुणा है । वहुरि तिस मिश्र ग्रहण के काल ते गृहीत ग्रहण का जघन्यकाल अनत गुणा है । बहुरि तिस ते सर्व पुद्गल परिवर्तन का जघन्य काल किछ अधिक है । जघन्य गृहीत ग्रहण काल को अनत का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तितना जघन्य गृहीत ग्रहण काल विर्ष मिलाइए, तब जघन्य पुद्गल परिवर्तन का काल हो है । बहुरि तिसतं गृहीत ग्रहण फा उत्कृष्ट काल अनत गुणा है, बहुरि तात संपूर्ण पुद्गल परिवर्तन का उत्कृष्ट गान किछ अधिक है । उत्कृष्ट गृहीत ग्रहण काल को अनत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितना उत्कृष्ट गृहीत ग्रहण काल विष मिलाइए, तव उत्कृष्ट पुद्गत परिवर्तन का काल हो है । इहां अगृहीत ग्रहण काल अर मिश्र ग्रहण काल विप नपन्य 33