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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५६३ संक्रगणे षट्स्थानानि, हानिषु वृद्धिषु भवन्ति तन्नामानि ।
परिमाणं च च पूर्वमुक्तक्रमं भवति श्रुतज्ञाने ॥५०६॥ टीका - इस संक्रमण विषै हानि विषै अनन्त भागादिक छह स्थान है। बहुरि वृद्धि विषै अनन्त गुणादिक भागादिक छह स्थान है । तिनके नाम वा प्रमाण जो पूर्व श्रुतज्ञान मार्गणा विर्षे पर्याय समास श्रुतज्ञान का वर्णन करते अनुक्रम कह्या है; सोई इहां जानना । सो अनन्तः भाग, असंख्यात भाग, सख्यात भाग, सख्यात गुणा, असंख्यात गुणा, अनन्त गुणा ए तौ षट् स्थाननि के नाम है । इनि अनन्त भागादिक की सहनानी क्रम तै ऊर्वक च्यारि, पाच, छह, सात, आठ का अंक है । बहुरि अनंत का प्रमाण जीवाराशि मात्र, असंख्यात का प्रमाण असख्यात लोक मात्र, संख्यात का प्रमाण उत्कृष्ट संख्यात मात्र असा प्रमाण गुणकार वा भागहार विष जानना । बहुरि यंत्र द्वार करि जो तहां अनुक्रम कह्या है, सोई यहां अनुक्रम जानना । वृद्धि विपै तो तहां कह्या है, सोई अनुक्रम जानना।
बहुरि हानि विर्ष उलटा अनुक्रम जानना। कैसे ? सो कहिये है - कपोत लेश्या का जघन्य ते लगाइ, कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट पर्यंत विवक्षा होइ, तौ क्रम ते संक्लेश की वृद्धि संभव है । बहुरि कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट तै लगाइ, कपोत लेश्या का जघन्य पर्यत विवक्षा होइ, तो कम ते सक्लेश की हानि सभव है। बहुरि पीत का जघन्य ते लगाइ शुक्ल का उत्कृष्टपर्यत विवक्षा होइ तौ क्रम तै विशुद्धि की वृद्धि संभव है । बहुरि शुक्ल का उत्कृष्ट तै लगाइ पीत का जघन्यपर्यत विवक्षा होइ तौ क्रम तै विशुद्धि की हानि संभव है । तहा वृद्धि विषै यथासभव षट्स्थानपतित वृद्धि जाननी हानि विष हानि जाननी । तहा पूर्वे कह्या जो वृद्धि विर्षे अनुक्रम, तहा पीछे ही पीछे सूच्यगुल' का असख्यातवां भाग मात्र बार अनन्त भाग वृद्धि होड, एक वार अनन्त गुणवृद्धि हो है । तहा अनन्त गुण वृद्विरूप जो स्थान, सो नवीन पट्स्थान पतितवृद्धि का प्रारभ रूप प्रथम स्थान है । अर याके पहिलै जो अनत भागवृद्धिरूप स्थान भया सो विवक्षित षट्स्थान पतित वृद्धि का अंत स्थान है । बहुरि नवीन पट्स्थान पतितवृद्धि का अनन्त गुणवृद्धिरूप प्रथम स्थान के प्रागै सूच्यगुल का असख्यातवा भागमात्र अनंतभाग वृद्धिरूपस्थान हो है । आगै पूर्वोक्त अनुक्रम जानना । अब हा कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट स्थान है; सो षट्स्थान पतित का अन्तस्थानरूप है, नातं पूर्वस्थान तै अनन्तभाग वृद्धिरूप है । बहुरि कृष्ण लेश्या का जघन्य स्थान हे, मी पट्स्थानपतित का प्रारंभरूप प्रथम स्थान है । तात याके पूर्व नीललेश्या का उत्कृष्ट