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[ गोम्मटसार जौनकाण्ड गाथा ५०५-५०६
बहुरि अवशेष नील, कपोत, तेज, पद्म, लेश्यानि विषै दोऊ जाति के सक्रमण हानि विषै भी अर वृद्धि विषे भी पाइए । वृद्धि हानि होते जो जिस निश्यारूप था, उस ही लेश्यारूप रहै, तहा स्वस्थान सक्रमण होइ । बहुरि वृद्धि हानि होते, जिस लेश्यारूप था, तिसतै अन्य लेश्यारूप प्रवर्त, तहां परस्थान संक्रमण होइ । जैसे च्यारथों लेश्यानि के हानि विषै वा वृद्धि विषे उभय सक्रमण है ।
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लेस्साणुक्कस्सादोवरहाणी अवरगाववरड्ढो । सठाणे श्रवरादो, हाणी नियमा परट्ठा ॥५०५ ॥
लेश्यानामुत्कृष्टादवरहानिः अवरकादवर वृद्धिः । स्वस्थाने यवरात् हानिनियमात् परस्थाने ।। ५०५ ॥
टीका - कृष्णादि सर्व लेश्यानि का उत्कृष्ट स्थान विपें जेते परिणाम हैं, तिनतै उत्कृष्ट स्थानक का समीपवर्ती जो तिस ही लेश्या का स्थान, तिस विप अवर हानि कहिए उत्कृष्ट स्थान ते अनंतभाग हानि लीएं परिणाम हैं । जातें उत्कृष्ट के अनंतर जो परिणाम, ताक ऊर्वक कह्या है, सो अनंतभाग की सदृष्टि ऊर्वक है । बहुरि स्वस्थान विषे कृष्णादि सर्व लेश्यानि का जघन्य स्थान के समीपवर्ती जो स्थान है, तिस विषै जघन्य स्थान के परिणामनि तै प्रवर वृद्धि कहिए । अनंत भागवृद्धि लीएं परिणाम पाइए है; जाते जो जघन्यभाव अष्टांकरूप कह्या है; सो अनंतगुरण वृद्धि की सहनानी आठ का अंक है; ताके अनन्तर ऊर्वक ही है । बहुरि सर्व लेश्यानि के जघन्यस्थान तै जो परस्थान संक्रमण होइ तौ उस जघन्य स्थानक के परिणमनि तै अनन्त गुणहानि को लीए, अनन्तर स्थान विषै परिणाम हो है, सो शुक्ल लेश्या का जघन्य स्थानक के अनन्तर तो पद्म लेश्या का उत्कृष्ट स्थान है । अर कृष्ण लेश्या के जघन्य स्थान के अनन्तर नील लेश्या का उत्कृष्ट स्थान है । तहां अनत गुणहानि पाइए है । जैसे ही सर्व लेश्यानि विषै जानना । कृष्ण, नील, कपोत विषे तो हानि - वृद्धि संक्लेश परिणामनि की जाननी । पीत, पद्म, शुक्ल विषै हानि वृद्धि विशुद्ध परि णामनि की जाननी ।
इस गाथा विष का अर्थ का कारण आगे प्रकट करि कहिए हैसंकमर छट्ठाणा, हाणिसु-वड्ढीसु होंति: तण्णामा । परिमारगं च यः पुव्वं, उत्तकमं होदि सुदणाणेः ॥ ५०६ ॥ -